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________________ ध्यान ः साधना और सिद्धि से भर उठते हैं, हमारी चेतना तेजोमय हो जाती है । ध्यान हमें चैतन्य कर देता है । मैंने शान्ति के क्षणों में तो ध्यान किया ही है, अशान्ति के क्षणों में भी ध्यान से गुजरा हूँ । मैंने ध्यान से अशान्ति को विचलित होते हुए पाया । प्रेम के क्षणों में तो ध्यान में होता ही हूँ, क्रोध के क्षणों में भी ध्यान में उतर के मैंने जाना है कि ध्यान के द्वारा क्रोध कैसे शान्त होता है, क्रोध किस तरीके से क्षमा और करुणा में तब्दील हो जाता है। निर्मलता के क्षणों में तो ध्यान आत्मसात रहता ही है; विकृति के क्षणों में भी अगर ध्यान की चेतना की किरण हृदय में उतार दी जाये तो हम अपने आपको निर्विषय पाकर चमत्कृत हो उठेंगे। ध्यान अपने आपके प्रति सजग होना है । अपने-आप में होना है । रागद्वेष के तंतुओं में बिखर रही अपनी चेतना को अपने आप में लौटा लाना ही ध्यान है । जब तुम हर ओर से अपने आप में लौट आते हो, अपने आपमें होते हो तब तुम ध्यान में ही हो, ऐसा कहा जाएगा। ध्यान का अर्थ है, लगना । अपने-आप में लगना । विश्राम में लगना । अपनी शांति में विश्राम करना यही ध्यान है। दुनिया में ध्यान के नाम पर जितने भी प्रयोग हैं, वे सब अपने आप में आने के लिए ही हैं, अन्तर्यात्रा के लिए ही हैं । प्रयोगों में जो परिवर्तन दिखायी देते हैं, वे सब चित्त की धारा को तोड़ने के लिए हैं। उसकी चंचलता और उच्छंखलता को मिटाने के लिए हैं । तुम बस एक बार वह कला पा लो कि चित्त को किस तरीके से, व्यक्ति से, परिस्थिति के निमित्त से, राग-द्वेष जनित भाव से हटाकर अपने आप में शान्त हुआ जाता है, विश्राम लिया जाता है, सहज प्रमोद एवं आनन्द-भाव में अधिष्ठित हुआ जाता है तो तुम ध्यान-सिद्ध हुए, तुमने ध्यान की चाबी हासिल कर ली । ध्यान तुम्हारे लिए फिर वैसा ही सहज होगा जैसे पानी पीना, मुस्कुराना, नृत्य करना, गीत गुनगुनाना। आपने पूछा है ध्यान में निर्विचार होने पर जोर दिया जाता है ।' ध्यान तो बहुत सहज है । ध्यान की किसी भी बात के लिए कोई जोर-जबरदस्ती नहीं है । जोर देने से बात बनती भी नहीं है । सहज में ही बात जिगर में उतरा करती है । निश्चय ही निर्विचार होना ध्यान का ही एक चरण है, पर हर व्यक्ति निर्विचार/निर्विकल्प स्थिति तक पहुँच जाए, यह संभव नहीं लगता । मैं जब निर्विचार होने की बात कहता हूँ, तो इसका सीधा-सा अर्थ है शान्त मन का स्वामी होना, मन की उधेड़बुन से अपने-आपको मुक्त करना । तुम अगर एक बोध हर समय अपने साथ बनाये रखो कि मैं सहजता से अपना जीवन जीऊँगा और क्रिया-प्रतिक्रिया की माथा पच्ची से अपने आपको बचाकर रखूगा तो मेरे हिसाब से तुमने शान्ति का सूत्र पा लिया। तुम शान्त मन के स्वामी होकर जी सकोगे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003863
Book TitleDhyan Sadhna aur Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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