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________________ मनुष्य का मन और ध्यान का विज्ञान ७३ में कितनी गहराई होगी, जिसने किसी महानगर या धार्मिक स्थान को न चुनकर एक वेश्यालय का चयन किया। न केवल चयन किया अपितु चार माह तक वहीं निवास किया । कोशा अपनी ओर से जितना प्रयास कर सकती थी कि स्थूलिभद्र डिग जाएं भरपूर प्रयास किये, लेकिन अन्ततः अनासक्ति विजयी हई, विराग जीत गया और कोशा के वेश्या-भाव का विलय हआ। उसके भीतर से श्राविका का जन्म हुआ। पंक पड़ा रह गया, पंकज फूटकर बाहर निकल आया । स्थूलिभद्र के मन की दशा इतनी अधिक उन्नत और उदात्त थी कि निर्लिप्तता की बाती और अधिक ज्योतिर्मय हो गई। स्थूलिभद्र, जो रहा था पहले कभी आशिक उस कोशा का, पर मन ने जब करवट बदली तो उससे इस कदर अनासक्त हुआ कि अपने वैराग्य की कसौटी कसने के लिए उसने अपनी पूर्व प्रेमिका को ही पात्र बनाया। सचमुच मन को सार्थक दिशा मिलनी चाहिए । जैसे मिट्टी मूर्ति बन जाती है, कोई पत्थर सिंहासन बन जाता है, वैसे ही मन को सार्थक दिशा मिल जाए तो वह मंदिर बन जाता है । मन जो बाधक है, मन जो घातक है, वही मन साधक और सहायक बन जाता है । मन को दिशा देना न आया, इसीलिए हम जीवन हारे हुए हैं । मन को अगर चेतना की दृष्टि मिल जाए तो जीवन में ध्यान का वह विज्ञान ईजाद होता है जो व्यक्ति को अन्तस् की ऊँचाइयों तक पहुँचाता है । परम स्वरूप की ओर अभिमुख करता है। मिट्टी मूर्ति बनती है, मिट्टी मंगल कलश बनती है । यदि राह का पत्थर किसी सिर को लग जाए तो लहूलुहान कर देता है । यही पत्थर किसी कलाकार के हाथ में आ जाए तो फन (कला) का रूप निखर आता है। वही पत्थर महावीर का सिंहासन और बुद्ध का वज्रासन बन जाता है । वर्षों तक बीज, बीज ही पड़ा रहता है । लेकिन बीज को जब उर्वरा धरती का धरातल मिल जाए, उसे सिंचन करने वाला मिल जाए तो बीज में से बरगद साकार हो जाता है । किसान जानता है कि पशुओं से मिलने वाला गोबर खेत में खाद बन जाता है और उसमें से चाहे दुर्गन्ध भी क्यों न उठे,खेती के लिए वही वरदान होता है । उसी से सुगंधित पुष्प, मधुरिम फल और अनाज उत्पन्न होते हैं। जब गंदगी में से सुगंध पैदा हो सकती है और जीवन के नर्क में से स्वर्ग ईजाद हो सकता है, तो हम ही पीछे क्यों रहे। ___भगवान ने मनुष्य के मन के आधार पर ध्यान का विज्ञान दिया । मनुष्य के मन की दशाएँ और मन की स्थितियों को पढ़कर ध्यान की कला और ध्यान का मार्ग इन्सान को सौंपा। भगवान ने देखा मनुष्य के भीतर ध्यान की सततता और निरंतरता तो है, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003863
Book TitleDhyan Sadhna aur Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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