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________________ ध्यान वही, जो घटे जीवन में ६५ हम दो संतों को लें, एक है संत तुकाराम और दूसरे हैं संत एकनाथ । एकनाथ की पत्नी सरल, विनम्र, अनुकूल, वहीं संत तुकाराम की पत्नी क्रोधित, अविनीत और प्रतिकूल । दोनों ही भक्त साधक । अपनी भावधारा के प्रति सजग । परिणाम यह हुआ कि एकनाथ ने आसक्ति-भाव बढ़ने न दिया और तुकाराम ने द्वेष-भाव उभरने न दिया। एक वीतराग रहे, तो दूसरा वीतद्वेष । एकनाथ सोचते-सौभाग्य, मुझे सत्संग के लिए कहीं जाना नहीं पड़ता। अपनी पत्नी का ही मुझे सत्संग मिल जाता है । तुकाराम सोचते- ईश्वर की कृपा, जो ऐसी पत्नी का संयोग मिला, नहीं तो यह बहुत कुछ संभव था कि मैं घर-गृहस्थी में फँस जाता, मूर्छा में उलझ जाता और यों प्रभु-सुमिरन को भुला बैठता। जो अपने मन को सही दिशा देने में सफल हो गया, उसके लिए जीवन की हर घड़ी धन्यभाग होने का सुकुन दे देती है, जहाँ अन्तर्मन शान्त हुआ, वहाँ बाहर की अशांति कैसे प्रभावित करेगी । ध्यान अन्तर्मन की शांति-शुद्धि का ही आधार है। ज्यों-ज्यों ध्यान गहरा होगा, ध्यान का क्षेत्र विराट् व्यापक होता जाएगा। ध्यान ही भक्ति हो जाएगा, ध्यान ही सेवा, ध्यान ही प्रेम और ज्ञान भी। जिसने भी पाया, ध्यान से पाया । ध्यान में स्वयं की पहचान होती है । स्वयं के साथ-साथ अन्तर्मन में समाए जगत से भी परिचय होता है। तब आप बिना साधना के भी वीतद्वेष होंगे। ध्यान रखें, हम वीतराग हो सकें या न हो सकें, वीतद्वेष होना जरूरी है । जब हृदय में करुणा और प्रेम का सागर छलछलाता हो तो वीतराग होना मुश्किल है, लेकिन वीतद्वेष हो जाना अनिवार्य है । हम किसी के मोह से छूट पाएँ या न छूट पाएँ, लेकिन हम किसी के प्रति वैर-वैमनस्य-विद्वेष नहीं रखें यह संकल्प तो दृढ़ आस्थाशील हो जाए। यह ज्ञात होने पर कि अमुक मुझसे द्वेष रखता है तुरंत उससे क्षमा प्रार्थना करें, उसे प्रणाम करें । आखिर, उसमें परमात्मा का बीज है। फिर परमात्मा का कोई भी अंश हमसे नाराज क्यों रहे । मेरे देखे, ध्यान हमें वीतद्वेष होने का संकल्प और बोध देता है। प्रातः और संध्याकाल में ध्यान करने से पूर्व अपने जीवन में किए गए समस्त पापों के लिए अपनी अन्तरात्मा से क्षमा चाहें, हृदय से उन्हें बाहर उलीचकर निर्भार हो जाएँ । समस्त प्राणी-मात्र के लिए करुणा और मैत्री-भाव का विकास होते हुए देखें। परमात्मा के स्मरण के साथ हम अन्तरजगत् में प्रवेश करें। ध्यान वह मार्ग है जो हमें प्रज्ञा की ओर ले जाता है । संबोधि जीवन की समझ है, ध्यान की परिणति है। यह वह दृष्टि है जिसका आधार सजगता, साक्षीत्व, तल्लीनता, और व्यक्तिगत चेतना में परमात्म-चेतना की अनुभूति है । अगर ऐसा होता है तो आप ध्यान के साथ एकाकार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003863
Book TitleDhyan Sadhna aur Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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