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ध्यान वही, जो घटे जीवन में
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देख ही लोगे कि कितनी बार, कितने जन्मों में इसी को दोहराया है, हर बार खुजली को खुजलाया है, फिर भी कुछ हाथ न आया, रीते-के-रीते ही रहे । मन अतृप्त रहा । जिस दिन इस रिक्तता का, निस्सारता का अहसास होगा, राम की ओर छलाँग लग ही जाएगी। मुक्ति के आकाश की ओर पंख खुल ही जाएँगे। तुम त्याग और भोग दोनों एक साथ चाहते हो, यह नहीं चलेगा । त्याग का ढोंग मत करो, तुम भोगी ही बने रहो । जब त्याग होगा तो करना नहीं पड़ेगा। भोग की अति खुद ही त्याग का मार्ग खोल देगी। वरना लोगों का संन्यास भी संसार का ही एक रूप है । बड़े मजे की बात है कि तुम संन्यास भी संसार के साथ पाना चाहते हो । संन्यास में संसार भी साधना चाहते हो । नतीजतन एक आँख मिचौली का खेल शुरू होता है । कभी दिन, कभी रात, कभी अंधकार, कभी प्रकाश, यह सब ऐसे ही चलता रहेगा, ऋतुएँ बदल जाएँगी । तुम जैसे पहले थे, वैसे ही रह जाओगे । सारी यात्रा कोल्हू के बैल की यात्रा हो जाएगी। वर्तुलाकार चलते रहे, पहुँचे कहीं नहीं।
___ ध्यान इस वर्तुल से निकलने का उपाय है । ध्यान अंधकार से प्रकाश की ओर यात्रा है। ध्यान उन लोगों के लिए है जो स्वयं को मूर्छाग्रस्त पाते हैं। ध्यान मूर्छा से प्रज्ञा की ओर जाने का मार्ग है। ध्यान हृदय और चेतना की पंखुरियों को खिलाने का साधन है, संसार में रहकर संसार से अछूते होने की कला है, सोये हुए लोगों के बीच सजगता और साक्षित्व को साधने का आधार है, भीड़ के कोलाहल में एकत्व-बोध का आयाम है।
ध्यान विकृत दृष्टियों के मध्य आत्मिक प्रेम का प्रसाद है । तनाव और घुटन के बीच शांति का सूत्रधार है । जिस दुनिया में इन्सान केवल स्वार्थ, छल, प्रपंच और हिंसा में रत रहा है, वहाँ ध्यान उसकी भावधारा को रूपान्तरित कर करुणाशील बनाता है । सुख-दुख के द्वन्द्व से उपर उठकर सम्यक् आनन्द का स्वामी बनाता है।
ध्यान संसार में संन्यास का कमल है। ध्यान की तरंग, संबोधि की समझ न होने के कारण ही संसार तुम्हारे लिए दलदल रहा । जेहन में बोध की किरण उतर जाए, तो संसार सुख का वरदान बन जाए। बस जीवन में ध्यान-दृष्टि चाहिए, बोध-दृष्टि चाहिये । इसके अभाव में व्यक्ति मुक्ति का उत्तराधिकारी नहीं, वरन् संसार के सरोवर में खड़ा बगुला भर होगा।
जरा देखो तो सही. तमने न जाने किन-किनसे उपेक्षा पाई है। पत्नी जिसे तम प्रेम करते हो, कितने ही दिन तुमसे रूठी रहती है। बच्चे जिन्हें तुम अपना कहते हो
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