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साक्षीभाव ही साधना का गुर
कदम समाधिस्थ और आत्मवान् पुरुष के कदम होंगे।
आओ, हम पहरा लगाएँ स्वयं का । जैसे हम औरों को देखते हैं, बगीचे में खिले फूलों को, आकाश में चमक रहे तारों को, सागर में उठती लहरों को, ऐसे ही देखें स्वयं को । शरीर में उठ रही राग-द्वेष जनित संवेदनाओं को, मन में उठ रही हिलोरों को । तुम साँस पर, साँसों में निहित प्राणों पर स्वयं की जागरूकता गहरी करो । भीतर विचार-विकल्प-कल्पना-स्मृति उठे, उसके प्रति सजगता गहरी करो। उसमें बहो मत, केवल सजगता.... केवल मौन.... विश्रामपूर्ण सजगता। धीरे-धीरे तम पाओगे शरीर में शांति का प्रसार हुआ। भीतर के सागर में, भीतर के आकाश में सहजता और सौम्यता साकार हुई । एक अपूर्व स्वरूप की अनुभूति हुई । मानो आकाश में इन्द्रधनुष उग आया। बिन मौसम के मेघ बरसे । बगिया में मोर-पपीहा बोले । मरुभूमि में मरूद्यान महका।
भीतर की शांति ज्यों-ज्यों गहरी गंभीर होती जाती है, शून्य साकार होता चला जाता है। हम एक तुरीय आनन्द से भरते चले जाते हैं । हम पाते हैं तब अपने में बुद्धत्व का बोध, संबोधि और समाधि का रसीला रसास्वादन ।
___ आह, शब्द मौन होना चाहते हैं । डूबना-उतरना चाहते हैं मौन में, निःशब्द में । ध्यान में उतरें।
...मौन ही ठीक है।
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