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________________ ध्यान ः साधना और सिद्धि धर्म ने कहा तुम बदी से बचो, पर कैसे ? केवल पुस्तकों में लिख देने से व्यक्ति बदी और बुराई से बच जाएगा ? क्रोध करना गलत है, क्या इतना कह देने से किसी का क्रोध छूट जाएगा ? संसार नश्वर है - यह लिख देने से क्या कोई संसार छोड़कर संन्यासी बन जाएगा? क्रोध छोड़ो—यह कहना पर्याप्त नहीं है । क्रोध कैसे छोड़ा जाए हमें इसका प्रयोग चाहिए । काम-भोग दुःखप्रद हैं, यह कह देने से काम-भोग नहीं छूटते । इनसे किस तरह छूटें कि इनकी भड़ास मन में न उठे, इसका प्रयोग चाहिए। कोई भी लत या दुर्व्यसन जीवन के लिए जहर है, या अफीम पीना स्वयं की जिंदगी को ही पी जाना है— इतना कह देने से धर्म मात्र व्यसन-मुक्ति का नारा हो जाएगा। धर्म जीवन का आचरण नहीं बन पाएगा । धर्म कोई नारा नहीं है । कुछ अच्छी बातों के प्रचार से या विज्ञापन से धर्म जीवित नही होता । धर्म कोई राजनीतिक दल है, जो आज है और कल नहीं होगा? धर्म तो चिरंतन है, अस्तित्व का अवधारण । आज हमारा धर्म जीवन-सापेक्ष नहीं बन पाया, क्योंकि धर्म के पास ज्ञान की सम्पदा थी, मार्ग था, लेकिन प्रयोग नहीं था। पिछले पच्चीस सौ वर्षों से, यह धर्म का दुर्भाग्य रहा कि वह प्रयोग से वंचित रहा । धर्म की यह विडम्बना रही कि धर्म को प्रयोग नहीं मिला। इसलिए वह जीवन का विज्ञान नहीं बन पाया। धर्म संतों, पंथों और ग्रन्थों में बँट गया। वह मनुष्य का नहीं हो पाया। शान्त, सौम्य, वातावरण में रहकर और गुरु-चरणों में बैठकर किया गया ध्यान वह प्रयोग है जो धर्म को पुनर्जीवित करता है। ध्यान प्रयोग देता है कि व्यक्ति धीरे-धीरे अपने मन की अनर्गलताओं से, मन की चंचलताओं और क्षद्रताओं से कैसे ऊपर उठे । जरूरी है केवल एकनिष्ठ होकर प्रयोग करने की, ध्यान की गहराई में उतरने की । यह ध्यान-शिविर विशुद्ध रूप से धर्म की प्रयोगशाला है । चाहें तो इसे जीवन-रूपान्तरण की प्रयोगशाला कह सकते हैं। मैंने देखा है लोग सत्संग में जाते हैं, प्रवचन सुनते हैं और कपड़ों की तरह वचन भी वहीं झाड़कर चले आते हैं । न मूर्छा टूटती है न मोह, न क्रोध छूटता है न विरोध । वैदिक काल में जीवन की एक व्यवस्था थी । ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास- जीवन में लयबद्धता थी। आज मनुष्य के पास न उस व्यवस्था के प्रति सजगता है और न जीवन जीने के वे सूत्र । चारों आश्रमों में से किसी की व्यवस्था न रही । आज तो चौदह वर्षीय बालक से कहो कि यह प्रतिज्ञा पत्र पढ़ो कि इस देश में रहने वाले सभी लड़के-लड़कियाँ मेरे भाई-बहन हैं । वह कहने से पढ़ तो जाएगा, पर धीरे से यह कहकर कि एक को छोड़कर। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003863
Book TitleDhyan Sadhna aur Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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