SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ध्यानयोग : प्रयोग-पद्धति १४५ हम आत्म तारें, भव निवारें, चन्द्रप्रभ चिन्मय बनें। सर्वात्म में समदृष्टि हो, चैतन्य-ज्योतिर्मय बनें ॥२४ । अंत में गुरु-वंदना करें और हाथों की कमल-मुद्रा बनाकर भावार्घ्य गुरु-चरणों में अर्पित करते हुए साधनापथ पर आगे बढ़ने के लिए उनका मंगल आशीष ग्रहण करें । आसन से खड़े हों, और सभी को करबद्ध अभिवादन कर रात्रि विश्राम के लिए विदा लें। उपसंहार ध्यानयोग की उक्त प्रक्रियाएँ स्वास्थ्य, शांति, संबोधि और आनंद के मंगलमय लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हैं । मनुष्य के पाशविक उद्वेगों और व्यवहारों के दिव्य रूपांतरण के लिए ध्यानयोग मूल मार्ग है । जीवन की कलुषताओं को जड़ से मिटाने के लिए यह सहज, सुलभ, सरलतम उपाय है। अन्तस् केन्द्रों के जागरण, निर्मलीकरण और साक्षात्कार के लिए यह जन-मन के लिए उपयोगी है। हमें सुख-सुविधाजनित समृद्धि के अनगिनत साधन उपलब्ध हुए हैं, किन्तु आन्तरिक शांति और समृद्धि के अभाव में हम जीवन के आनन्दमयी वरदान से वंचित हो गए हैं । हमारी शांति, शुद्धि, प्रगति और मुक्ति कुंठित हुई है । संबोधि-ध्यान मनुष्य का कायाकल्प और अभ्युत्थान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इससे हमारे भीतर स्वतः ही धार्मिकता का उन्नयन होने लगता है। क्रोध-लोभ, भय-स्वार्थ, वैर-व्यभिचार, अपराध-आक्रोश धीरे-धीरे छूटते जाते हैं और सुख, शांति तथा आनंद के स्वस्तिकर लक्ष्य आत्मसात् हो जाते हैं । हम सत्यम् शिवम् सुंदरम् के महामार्ग के ज्योतिर्मान पथिक हो जाते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003863
Book TitleDhyan Sadhna aur Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy