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________________ ध्यानयोग : प्रयोग-पद्धति १४१ साँसों की गति में भी उतार-चढ़ाव आएँगे । वृत्तियाँ, विकल्प, विचार उठते हैं, तो उठने दीजिए। उन्हें रोकने का प्रयास न करें । हम स्वयं को हर वृत्ति, हर विकल्प, हर विचार से, यहाँ तक कि साँसों से भी अलग रखकर उन्हें तटस्थ दृष्टा और साक्षी होकर ऐसे देखें, मानो वे हमारे विचार न होकर किसी और के हैं, हमारी वृत्ति न होकर किसी और की है। सांस लेने वाला कोई और है और विचारों को देखने वाला कोई और है। इस प्रक्रिया से गुजरते हुए हम स्वयं अनुभव करेंगे कि हमारी अन्तर्-सजगता जैसे-जैसे प्रगाढ़ होती है, विचारों एवं वृत्तियों में होने वाली उथल-पुथल स्वतः शांत होती जा रही है। साँसों में पुनः लयबद्धता और संतुलन स्थापित हो रहा है। विचारों-विकल्पों की आवृत्ति कम होती जा रही है और वृत्तियों के आवेग कम होते जा रहे हैं। धीरे-धीरे हम उनसे मुक्त होते जा रहे हैं और हमारा बोधि-केन्द्र जाग्रत होता जा रहा है। अन्तर-सजगता के इस चरण से मुख्यतः हमारा अपने अचेतन और अवचेतन मन से सम्पर्क होता है, हम अपनी दमित और उद्दीप्त मनोदशा से परिचित होते हैं। संवेग-उद्वेग, वृत्ति-विकल्प शिथिल पड़ते हैं और चित्त-दशा शांत होती है । आत्म-तत्व जाग्रत होता है। तृतीय चरण : अन्तर्यात्रा १० मिनट अपने विचारों, वृत्तियों से गुजरने और उनसे मुक्त होने के उपरांत सांसों के माध्यम से अपनी चेतना को प्राण-क्षेत्र पर लाएँ अर्थात् नाभि और कमर-प्रदेश के मध्य ले जाएँ। यह स्थान आंतरिक शक्ति का केन्द्र है। नाभि से पीछे सुषुम्ना तक के ऊर्जा-क्षेत्र पर सांसों को, प्राणों के प्रवाह को केन्द्रित करें। चित्त, मन और बुद्धि को नाभि-प्रदेश के प्राण-क्षेत्र पर उलट डालें । श्वास-धारा मंदतर और पुलकभरी हो । पाशविक वृत्तियों का केन्द्र नाभि से नीचे स्थित है, जिसकी जड़ें ठेठ पाँवों तक फैली हुई हैं। सजगता को नाभि से नीचे एक-एक अंग से गुजारते हुए संवेदनाओं का निरीक्षण कर अंगूठे तक पहुँचें और इन संवेदनाओं से मुक्त होते हुए उलटे क्रम से वापस ऊपर नाभि पर स्वयं को केन्द्रित करें। इस प्रक्रिया से हमारी पाशविक वृत्तियाँ शान्त-मौन होने लगी हैं। इस चरण से स्वास्थ्य, प्राण एवं शक्ति केन्द्र सक्रिय होता है और नीचे की उत्तेजक ग्रन्थियाँ शांत एवं परिष्कृत होती हैं। हमारे आन्तरिक रोग क्षीण होते हैं तथा शरीर की जो तीन-चौथाई ऊर्जा काम-क्रोधजन्य संवेग-आवेग में नष्ट होती है, उसकी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003863
Book TitleDhyan Sadhna aur Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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