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ध्यान : साधना और सिद्धि
उपयुक्त आसन का चुनाव कर सहज स्थिर बैठे। पूरे शरीर का मानसिक निरीक्षण कर यह जांचें कि शरीर के किसी भाग में तनाव या जकड़न शेष है ? मानसिक निर्देश से उस अंग के तनाव को शिथिल करें । आंतरिक प्रसन्नता को खिलने दें । नेत्र बन्द करें । अंतरदृष्टि से गुरुदर्शन करते हुए ध्यान का संकल्प लें और चैतन्य-ध्यान में प्रवेश करें।
किसी भी कार्य में प्रवृत्त होने से पूर्व संकल्प पूर्व-भूमिका का काम करता है। संकल्प हमें लक्ष्य की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है । इसके लिए जरूरी है कि संकल्प दृढ़ हो, संकल्प का सदा स्मरण रहे एवं संकल्प को क्रियान्वित करें । यह संकल्प वास्तव में ध्यान की दीक्षा है। सद्गुरु के चरणों में बैठकर दीक्षित होने के पश्चात् ध्यानमार्ग में प्रवृत्त हुआ जाता है, क्योंकि यही गुरु और साधक के बीच सम्बन्ध स्थापित करता
है।
'शरण-सूत्र' बोलकर उपसंपदा स्वीकार करें
शरण-सूत्र अरिहंते सरणं पवज्जामि। सिद्धे सरणं पवज्जामि। साहू सरणं पवज्जामि। धम्म सरणं पवज्जामि।
अप्पं सरणं पवज्जामि ॥* प्रथम चरण : ओंकारनाद
गहरी साँस भरें । नाभि पर ध्यान केन्द्रित कर ओम् का उच्चार करें । एक बार उद्घोष, फिर तीन बार सहज साँस, फिर उद्घोष। ओंकारनाद की प्रक्रिया में ध्यान नाभि/शक्ति-केन्द्र से प्रारंभ होकर ऊपर उठता हुआ क्रमशः हृदय, कंठ, नासिका मूल, भृकुटी, ललाट से गुजरता हुआ शिखा/सहस्रार तक जाए । प्रत्येक स्तर पर ओंकार ध्वनि के वरील प्रकंपनों को अनुभव करने का प्रयास करें। नाभि, हृदय, कंठ, कान एवं कपाल पर ओम् की अनुगूंज को सुनने का प्रयास करें । निरन्तर अभ्यास से जैसे-जैसे इन्द्रियाँ अंतर्मखी होने लगती हैं, प्रकम्पनों की सक्ष्म संवेदनाओं को ग्रहण करने की क्षमता विकसित हो जाती है । नाद के प्रति अपनी सजगता बनाए रखें । नाभि, हृदय
___ * भावार्थ : अरिहंत, सिद्ध, साधु, धर्म और आत्मा की शरण स्वीकार करता
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