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________________ मुक्ति हो, मृत्यु नहीं १०३ प्राणायाम का अर्थ ही है प्राणों को निश्चित आयाम, निश्चित सोपान, निश्चित गति देना । जो अपान वायु मृत्यु का निमित्त बनती है उसकी भी काट करना । इसलिए मृत्यु बहुत ही साधारण-सी बात है । मृत्यु यानी हम पुनः साँस न ले पाए । प्रति मिनिट हम दस बार जीवन-मृत्यु का खेल खेलते हैं । जीवन में मृत्यु प्रतिक्षण समीप आती है, लेकिन मनुष्य को महसूस होता है कि वह जीवन में हर पल आगे बढ़ रहा है । नतीजतन मनुष्य को अपने जीवन में कभी भी मृत्यु का बोध नहीं हो पाता । जिसे मृत्यु का बोध नहीं हो पाता, उसे जीवन का बोध कैसे हो। जिसे जीवन का बोध न हुआ, उसे मुक्ति का पाठ भी घटित न हुआ। मृत्यु का बोध पाना अनासक्ति को जीवन में आचरित कर लेना है । मृत्यु का बोध जीवन में वीतराग, वीतद्वेष और वीतमोह होने का आधार है । हम जीवन में न जाने कितने लोगों को मरता हुआ देखते हैं, लेकिन कभी अपनी मृत्यु का ख्याल नहीं आता । हमें वह दूसरा ही लगता है । हम सोचते हैं वह मरा है, हम नहीं' । लेकिन हर मृत्यु अपनी ही मौत की सूचना है । अपनी मूढ़ता में वह इस तथ्य को देख ही नहीं पाता कि कल मेरी भी यही स्थिति होने वाली है । मूर्ख को तो क्षमा किया जा सकता है, क्योंकि वह अनभिज्ञ है, लेकिन मूर्च्छित को कैसे छोड़ा जाए, क्योंकि वह जानते हुए भी मूढ़ बना हुआ है । मूढ़ता एक प्रकार की मूर्छा ही है। ____ महाभारत का एक चर्चित प्रसंग है - एक बार माँ कुंती को जोर की प्यास लगी। उसने अपने पुत्रों से पानी की व्यवस्था करने को कहा । सबसे छोटा पुत्र जाता है, एक-एक कर कुंती-पुत्र जाते हैं और सभी जानते हैं कि उनके सामने यक्षप्रश्न खड़े होते हैं। कोई भी पुत्र यक्ष-प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाता और सब पत्थर की शिला में बदलते जाते हैं। जब अंत में युधिष्ठिर पहुँचता है तब उससे भी यक्ष-प्रश्न पूछे जाते हैं । यक्ष पूछता है कि मनुष्य की मूर्खता और मूढ़ता क्या है, मनुष्य का सत्य और असत्य क्या है, मनुष्य का ज्ञान और अज्ञान क्या है । तब युधिष्ठिर ने जो समाधान दिये, उसका कुल सार यही है कि मनुष्य की सबसे बड़ी मूर्खता यही है कि उसे ठोकर लगती है, फिर भी वह संभलता नहीं है । पूछा गया, कैसे? जवाब मिला, जब मेरा एक भाई यहाँ पत्थर बना दूसरा भाई पत्थर बना। पहला भाई पत्थर बना तब समझ में आता है कि उसे जानकारी न थी । लेकिन एक को पत्थर बना देखकर दूसरा भाई न जगा, दूसरे को देखकर तीसरा न जगा, चौथा भी न जगा, यही मनुष्य की मूढ़ता और यही उसका अज्ञान है। जो औरों को ठोकर खाती देख सम्हल जाए, वह प्रज्ञावान है । जो ठोकर खाकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003863
Book TitleDhyan Sadhna aur Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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