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मुक्ति हो, मृत्यु नहीं
मेरे प्रिय आत्मन्,
जीवन एक तीर्थयात्रा है। इसकी पूर्णाहुति किसी के लिए मृत्यु के कगार पर होती है और किसी के लिए मुक्ति के धरातल पर । जिनके अन्तर्चक्षु नहीं खुले हैं, उनके लिए मृत्यु जीवन का समापन है, लेकिन जिन्होंने अन्तर्दृष्टि पा ली है, उनके लिए जीवन सतत चलने वाली धारा है । व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर भी उस तत्त्व की कभी मृत्यु नहीं होती, जो जीवन्त है । जो चिता पर जलता है वह तो आज भी मृत है और सौ बार चिता पर चढ़कर भी जिसकी मृत्यु नहीं होती, वही जीवन है। शरीर की मृत्यु होती है, जीवन-तत्त्व की नहीं । बाह्य रूप से हम किसी को मृत जरूर कह सकते हैं, लेकिन जीवन-तत्त्व की मृत्यु नहीं हो सकती । सारे परिवर्तन पर्यायों में होते हैं, मूल सत्ता तो हर हाल में अखंड-अमर रहती है।
__ऐसा ही हुआ, एक बार मेरा किसी के यहाँ जाना हआ। वहाँ किसी का शव रखा हुआ था। सभी परिजन शव के आसपास रुदन कर रहे थे। विलाप करते हए 'अमुक मर गया' 'हमें छोड़कर चला गया' कहते जा रहे थे। मुझसे भी यही कहा गया कि यह आपका अत्यन्त प्रिय था, मर गया । मैंने सिर्फ इतना ही कहा 'जिनके पास आँखें हैं, उनके लिए जीवन की कभी मृत्यु नहीं होती । जिसे तुम मर गया कहते हो, वह पहले ही मरा हुआ रहा । मृत्यु ने केवल दोनों के बीच का संयोग तोड़ दिया।'
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