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जाना, यही तो अनासक्ति है। दुनिया तो रंगीन को भी नारंगी ही कहेगी, इसकी आपाधापी में उलझ गए तो यहीं रह जाओगे, निकल ही न पाओगे। कृपया कीचड़ के कीड़े मत बनो। बनना ही है तो कीचड़ में खिले कमल बनो। जीवन में बोध ज़रूरी है और यह बोध ही उसे जगाता है, जगत् के जंजालों से मुक्त करता है। तब लगता है कि हमें यह नहीं करना, वह नहीं करना; अन्यथा वही रेलमपेल चलती रहती है। सुबह होती है, शाम होती है, उम्र यूँ ही तमाम होती है। हमारी जिन्दगी घाणी के बैल की कहानी बन जाती है। ___नचिकेता ने भी अपने पिता से कहा, 'अणिच्चम् । मैं जा रहा हूँ, मेरा मोह न करो। मैं मृत्यु से साक्षात्कार करूँगा। आदमी को जीना ही नहीं, मरना भी आना चाहिए। अध्यात्म की राह पर चलने वालों को यह कला आनी ही चाहिए। जीवन के दो किनारे हैं - इसके एक तरफ जन्म है, तो दूसरी तरफ मृत्यु । इनके बीच ही जीवन की नदी बहती है। हमें इतना बोध रहना चाहिए कि जीना भी आए और मरना भी। मृत्यु वह नहीं है, जिसे मजबूरी में स्वीकारा जाए। मृत्यु वह है, जिसका वरण किया जा सके । महावीर ने मृत्यु को स्वीकार करने का सिद्धांत दिया - संलेखना, समाधिपूर्वक मरण । महावीर ने कहा, 'ज्ञान और बोधपूर्वक मृत्यु का वरण करो।' गीता में कृष्ण कहते हैं, 'समय आने पर शरीर को वैसे ही त्याग देना चाहिए जिस तरह पुरानी होने पर साँप अपनी कैंचुली उतार फेंकता है। रोग आ जाए तो उसका उपचार करो, लेकिन मृत्यु आ जाए तो उससे भागो मत, उसका वरण करो। मृत्यु से भला कोई भाग पाया है? वह तो उस हर जगह पहुँच जाती है, जहाँ उसे पहुँचना होता है। इतना ही नहीं, अगर हमारी मृत्यु किसी खास मुकाम पर होनी तय है, तो वह कोई-न-कोई ऐसी गोटी फिट कर देती है कि हम वहाँ पहुँच ही जाते हैं।
ऐसा हुआ कि एक इंसान की दहलीज पर मृत्यु ने दस्तक दी। मृत्यु ने उससे कहा, 'तीन दिन बाद आऊँगी, तुझे लेकर जाऊँगी, तैयार रहना।' उस इंसान ने सोचा, मैं मृत्यु को धोखा दूँगा। वह अपनी कार लेकर निकला। लगातार तीन दिन तक कार को दौड़ाता रहा। तीसरे दिन अपने घर से हजारों किलोमीटर दूर निकलने पर जंगल में पेड़ के नीचे कुछ देर आराम करने बैठा। वह निश्चित होकर सोचने लगा, अब मौत मुझे नहीं मार सकती। मैं उससे बहुत दूर निकल आया हूँ। अचानक उसने अपने कंधे पर किसी का हाथ महसूस किया। उसने मुड़कर देखा, तो पाया कि वहाँ मौत खड़ी मुस्कुरा रही थी। उस आदमी ने हैरानी से पूछा, 'तुम यहाँ तक कैसे आ गई ?' मृत्यु बोली, 'जिस कार में तुम आए, उसी में सवार होकर मैं आई। तीन दिन बाद तुम्हें यहीं, इसी पेड़ के नीचे आना था, क्योंकि
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