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________________ कोई-न-कोई राज़ अवश्य है। हमारी समझ में तो इतनी-सी बात आ जानी चाहिए कि लगाम, घोड़े, रथ मज़बूत हों; साथ ही हमारा मन भी मज़बूत हो। हमारी इंद्रियों पर मन रूपी लगाम रहनी चाहिए, ताकि घोड़े हमारे अधिकार में रहें। लगाम ढीली होते ही मन के घोड़े इधर-उधर दौड़ने लगेंगे और तब चाहे कितना ही छोटा युद्ध क्यों न हो, हम नहीं जीत पाएँगे। ये घोड़े मज़बूत हों, तो एक राजा को दूसरे राज्य पर अधिकार जमाने में मददगार साबित हो सकते हैं । ये ही दुर्बल निकल जाएँ, तो राजा को दूसरे राज्य में कैद में भिजवा सकते हैं। महाराणा प्रताप का घोड़ा चेतक इतना मज़बूत था कि मरते-मरते भी कमाल दिखा गया, लेकिन अपने मालिक का सिर नीचा नहीं होने दिया। ऐसा चेतक मर जाता है, तब भी एक इतिहास लिख जाता है। मन और इंद्रियों का निग्रह नहीं, उनको संस्कारित करें, ताकि ये हमारे जीवन के लिए सहयोगी बन सकें। कठोपनिषद् कहता है, बुद्धि रूपी सारथी जिस पर अपना नियंत्रण करे, ऐसा हमारा मन हमारे लिए लाभ देने वाला हो सकता है। हमारा मन सही दिशा में सोचेगा, तो ऊर्जा उत्पन्न करेगा और यही मन नकारात्मक भूमिका में उतर आएगा, तो इससे बड़ा अवसाद मनुष्य के लिए और कोई दूसरा नहीं होगा। हमारा मन ही हमारा सबसे करीबी सहयोगी है जिसकी प्रेरणा से हम हमारा जीवन जीया करते हैं। सच्चाई तो यह है कि मन ही हमारा मित्र है और मन ही हमारा शत्रु । नियंत्रित मन मित्र है, अनियंत्रित मन शत्रु है। मन में ही स्वर्ग है और मन में ही नरक है। सहज सकारात्मक मन स्वर्ग है। उद्विग्न और नकारात्मक मन नरक है। __मन की गतिविधियाँ पाँच स्तरों पर चला करती हैं । मन के भीतर सारे व्यापार इन्हीं स्तरों पर चलते हैं। ये स्तर हैं - विचार, वासना, भावना, संकल्प और मनोबल। कठोपनिषद् कहता है कि मन को संचालित करने वाले कारकों में सबसे पहला है विचार, वह धरातल जहाँ से विचार का जन्म होता है। विचार एक बीज की तरह है। समुद्र में उठने वाली सारी लहरें, किसी-न-किसी तरह से उपयोगी होती हैं। हर लहर दुसरी लहर को आगे बढ़ाती है। जैसे विचार हमारे मन में आएँगे, वैसे ही शब्द बनेंगे और उन शब्दों से वैसी ही वाणी और उसी वाणी के अनुरूप हमारा व्यवहार होगा। व्यवहार हमारी आदतों को परिभाषित करेगा। कोई भी विचार व्यर्थ नहीं होता। विचार मन की प्रकृति का परिणाम होते हैं । जिसका जैसा स्वभाव, उसके मन में वैसे ही विचार पैदा होंगे। विचार अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी। यह तो हमारे मन की दशा पर निर्भर करता है। अपनी बुद्धि, अपना विवेक हमें इसी काम में लगाना चाहिए कि हम दुर्विचारों को सद्विचारों में कैसे बदलें? निर्विचार हो जाना तो सिद्धों की बात है, ज्ञानियों की बात है। हमें तो अपने दुर्विचारों को सद्विचारों में बदलना है। अच्छे विचार 211 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003862
Book TitleMrutyu Se Mulakat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2011
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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