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साथ उसका जाप करें। उच्चारण को साधकर स्मरण करते हैं, तो मन लगने लगता है। मन की स्थिति विचित्र है । इसे साधने के लिए साधनों की ज़रूरत होती है ।
ओम् जीवन का सार है, यह सबसे छोटा मंत्र है, सबसे सरल मंत्र है। बीज कितना भी छोटा क्यों न हो, उसमें विशाल वटवृक्ष छिपा रहता है । वटवृक्ष की सम्भावनाएँ छिपी रहती हैं । आप किसी पेड़ को लगाने का प्रयास करेंगे, तो मुश्किल आएगी; लेकिन आप किसी बीज को बो देंगे, तो यह काम बड़ी आसानी से हो जाएगा। पेड़ उस बीज में से ही आसानी से निकल आएगा। इसमें थोड़ा समय तो लगेगा लेकिन बात बन जाएगी।
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ओम् का उच्चारण करें, फिर स्मरण करें। अगले चरण में दर्शन का प्रयास करें । ओम् के स्वरूप का ध्यान धरें । हृदय- प्रदेश पर या ललाट पर दर्शन का प्रयास करें। भले ही यह आरोपण है, लेकिन किसी-न-किसी आलंबन का सहारा तो लेना ही पड़ेगा। मंदिरों में स्थापित पाषाण - प्रतिमाओं में भी तो हम प्रभु का आरोपण ही तो करते हैं प्राण-प्रतिष्ठा समारोह का नाम इसीलिए तो दिया गया है कि हम पाषाण में प्राण प्रतिष्ठापित करते हैं । ऐसे ही हमें ओम् के स्वरूप को स्थापित करना चाहिए। ओम् को स्थापित करने के लिए आप विभिन्न रंगों का उपयोग कर सकते हैं। हर रंग की अपनी विशेषता होती है ।
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ओम् की साधना करते हुए मंत्र का भली-भाँति उच्चारण करते हुए अपने आपको पराशक्ति के समीप ले जाने का प्रयास करें। जितनी श्रद्धा और भक्ति-भाव से ओम् का उच्चारण किया जाएगा, ओंकार की शक्ति वैसा ही प्रतिफल देगी । ओम् का उच्चारण राम को अलग परिणाम देगा और रावण को अलग। दोनों को ही भिन्न परिणाम मिलेंगे आसुरी शक्ति ओम् की साधना करेगी, तो परिणाम दूसरे होंगे । दैवीय शक्ति ऐसा करेगी, तो परिणाम अलग आना निश्चित है। जैसी जिसकी भावना, कामना, आशा; उसे वैसा ही परिणाम मिलेगा। ओम् का उच्चारण तो इतना प्रभावी है कि बीमारी में भी चमत्कार दिखा सकता है ।
अनेक साधकों ने ओम् को गले में धारण किया और उन्हें जल्दी ही इसका परिणाम भी देखने को मिल गया । ओम में सब कुछ समाहित है । इसमें गुरु-तत्त्व समाहित है, स्वयं परमात्मा इसमें समाहित हैं । ओम् में सभी आ जाते हैं । कहीं, कोई जुदा नहीं है। ईश्वर का नाम लेने में किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती और ओम का नाम लेते ही समझ लीजिए, आपने ईश्वर का नाम ले लिया । परमेश्वर के नाम पर कोई समस्या नहीं है । गुरु अलग हो सकते हैं, वैसे ही भगवान के भी कई-कई नाम हो सकते हैं। मेरा तो जैन समाज से भी आग्रह है कि गुरु की बजाय, महावीर को ही मानें हमने गुरुओं को आगे करके एक तरह से महावीर को दूसरे स्थान पर खड़ा कर दिया है । गुरु जिसकी उपासना करता है, आप भी उसी की उपासना करो। गुरु की उपासना के
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