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________________ क्रियाओं के लिए वक़्त नहीं निकाल पा रही है, लेकिन उस महिला का उठना-बैठना भी धर्म का आचरण है और अदालत की कुर्सी पर बैठकर न्याय देना भी धर्म को ही जीना है। केवल तौर-तरीक़ों में ही अटके रह गए तो हम धर्म की अंतरात्मा की आवाज़ नहीं सुन पाएँगे। धर्म हमें बाँधता नहीं है। धर्म हमें जीना सिखाता है। धर्म जीवन जीने की कला है। मंदिर तो धर्म का पहला पगथिया है, हमें मंदिर तक ही सीमित नहीं रहना है। धर्म जीवन के साथ जुड़े तो वह मुक्ति की पायजेब बने । धर्म मुक्ति का शंखनाद है, उसे पाँव की बेड़ियाँ मत बनाइए। मंदिर तो हमारी आस्था के केन्द्र हैं। ईश्वर की इबादत करने के पवित्र स्थान है। दुनिया के सारे मंदिर ईश्वर के मंदिर है। फिर चाहें आप उसमें महावीर की मूर्ति बैठाएँ या महादेव की। राम की छवि लगाएँ या रिषभदेव की। इस भेद से क्या फ़र्क पड़ता है। असली चीज़ है मंदिर के प्रति मंदिर का भाव। भगवान मूर्तियों में कम, हमारी भावनाओं में ज़्यादा निवास करता है। ___ मंदिरों में मूर्तियों के भेद भी निराले हैं। किसी मूर्ति के हाथ में धनुष टाँग दिया तो वह राम की मूर्ति हो गई और उसी के हाथ में चक्र रख दिया तो वह कृष्ण में बदल गई। किसी मूर्ति के कंधे पर दुपट्टा रख दिया तो उसे बुद्ध समझ लिया और दुपट्टा हटा लिया तो वे महावीर बन गए।अगर आज का मनुष्य पत्थर पर उकेरी जा रही दो-चार रेखाओं के आधार पर अपने आपको बाँट बैठा, तो फिर उसकी बुद्धि वैज्ञानिक कहाँ हुई ? उसमें दिमागी परिपक्वता कहाँ आई? इंसान स्वयं भगवान का रूप है । यदि तुम्हें पूजा और इबादत करनी है तो मंदिर के बाहर भी भगवान के दर्शन करो। तुम मानव की भी पूजा करो, मानवता को पूजो। यह भारतवासियों की ही महिमा है कि वे लोग पत्थर की भी पजा कर सकते हैं. लेकिन अफ़सोस तो इस बात का हैं कि वे जीवित इंसान में भगवान को नहीं देख पाते, प्राणिमात्र में ईश्वर की संपदा स्वीकार नहीं कर पाते। मेरे लिए तो आप सब भी प्रभु के रूप हैं । मेरा आप सबको नमन है। मैं तो अपना जन्म-दिन भी किसी अनाथालय या नेत्रहीन विकास संस्थान के बीच मनाया करता हूँ। मैं पहले अपने अंतरमन के मंदिर में परमात्म-चेतना की इबादत करता हूँ। फिर मंदिर में जाकर प्रभु के दिव्य रूप का आनंद लेता हूँ तत्पश्चात् दीन-दुखियों के बीच अपने सुख के कुछ पल बाँटता हूँ। अपने हाथों से उन्हें भोजन कराने का आनंद लेता हूँ और फिर जो बचा हुआ भोजन होता है उसमें से कुछ अंश प्रसाद मानकर ग्रहण करता हूँ। जीवन में सदा याद रखना कि अपने नाम से कहीं कमरा बनवा देना या मंदिर बनवा देना धर्म अवश्य है पर भूखों को भोजन और प्यासों को पानी पिलाना जीवन का सच्चा धर्म है। मेरा अनुरोध है कि आप भी हर काया में कायानाथ के दर्शन करें । भौतिक शरीर में भी भगवान को निहारें। आखिर, हमारी दृष्टि पर ही तो निर्भर करता है कि हम पत्थर में भी प्रभु की मूरत निहार सकते हैं और एक इंसान में भी जगदीश्वर की छवि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003860
Book TitleLife ho to Aisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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