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वहाँ साँप नहीं है, रस्सी है। रस्सी में सर्प को मानना, यह भ्रम था और क्षण भर बाद प्रकाश में रस्सी का दिखना, यही भ्रम का टूटना है । क्या साँप की एक क्षण में मृत्यु हो गई ? नहीं। साँप न तो जन्मा था, न मरा था। जन्म हमारे भ्रम का हुआ और मृत्यु भी हमारे भ्रम की हुई ।
कभी आपने अनुभव किया होगा कि आप फिल्म हॉल में बैठे हैं। निरंतर पर्दे पर सामने की ओर देखते रहते हैं, पर पीठ की ओर कभी नहीं देखते। पीछे कुछ होता ही नहीं। जो कुछ होता है, पर्दे पर सामने की ओर होता है— रंग, रूप, गीत, संगीत इत्यादि । सब कुछ सामने पर्दे पर ही चलता है। पर सच्चाई आप जानते हैं कि पर्दे पर कुछ नहीं होता। वह तो पूरा खाली होता है। जो कुछ होता है, पीठ के पीछे होता है। पर्दे पर किरणों का सारा जाल फैलता है, सब कुछ पीछे होता है— गीत-संगीत, रूप-रंग, सब कुछ वहाँ होते हैं, जहां प्रोजेक्टर लगा है। क्या आप प्रोजेक्टर का अर्थ समझते हैं ? जिसे हम प्रोजेक्शन कहते हैं, हिन्दी में उसे हम प्रक्षेपित कहेंगे । अगर पीछे से प्रक्षेपण होगा तो दृश्य भी उभरेंगे। प्रक्षेपण समाप्त, तो पर्दा भी श्वेत !
हमारी आसक्ति और ममत्व-बुद्धि कुछ ऐसी ही है। कहीं कुछ सत्य नहीं, केवल सत्य का आभास भर है । मनुष्य का सबसे बड़ा अज्ञान यह है कि उसके आसपास जो कुछ होता है, उसी से वह जुड़ जाता है, तादात्म्य बैठा लेता है । जो कुछ हमें पकड़ ले, हम उसी में जुड़ गए। जो रंग हमारे इर्द-गिर्द हो, हम उसी से रंग जाते हैं। इतने गहरे रंग जाते हैं कि हम भूल जाते हैं कि जो रंग मेरे ऊपर हावी हो रहा है, मैं उससे पृथक् हूँ । हमारी हालत ऐसी हो जाती है, जैसे कैमरे के भीतर फोटो-प्लेट की होती है । जरा-सा भी उसके आगे से पर्दा हटाया, तो सामने के दृश्य को वह तुरंत पकड़ लेती है । एक सैकंड के दसवें हिस्से भर कैमरे का पर्दा हटता है, उसकी आँख खुलती है और भीतर की फोटो-प्लेट सामने के दृश्य को पकड़ लेती है। सामने चाहे झील हो या सागर उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। छोटा-सा पत्थर हो या पहाड़ी, जो कुछ दिख जाता है, उसी के साथ वह 'एक' हो जाती है ।
हम फोटो-प्लेट की तरह नहीं अपितु आईने की तरह जीने का प्रयास करें, दर्पण की भांति । दर्पण सामने जो भी आता है, वह दिखाई पड़ता है, लेकिन जैसे ही सामने का दृश्य हटा, वैसे ही दर्पण खाली का खाली, उज्ज्वल । दर्पण पकड़ता नहीं है, वह प्रतिबिंबित अवश्य करता है । चाहे जितने दृश्य उसके सामने से गुजर जाएँ, पर दर्पण अपने स्वभाव में स्थिर रहता है। दर्पण हजार को देखकर निर्मल बना रहता है और फोटोप्लेट एक को देखकर भी खराब हो जाती है। जो अनासक्त जीवन जी रहा है, उसका जीवन आईने की तरह होता है । वह किसी को प्रतिबिंबित अवश्य करता है, पर उसे पकड़ता नहीं है।
‘मेरेपन' के विस्तार को फिर से संकुचित करो। ममता का विस्तार ही तो अहंकार का विस्तार करता है। आप जितनी चीजों के साथ 'मेरापन ' जोड़ते हैं, उतना ही आपका अहंकार पुष्ट होता है। अपनी समझ पैदा करो खुद के भीतर । कहीं ऐसा न हो कि तुम पूरी जिंदगी सपनों का ही निर्माण करते रहो और विचारों का, माया-मोह और ममता का आरोपण करते रहो । परिणाम यह आयेगा कि तुम भले ही सत्य हो, लेकिन भ्रम में उलझे रह जाओगे । उज्ज्वलता के मार्ग तुम्हारे सामने आएँगे, पर तुम्हारा भ्रम, तुम्हारी आसक्ति, तुम्हारा सम्मोहन, ये सब
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