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हमारा मन भी ऐसा ही है जिसके भीतर टिड्डियाँ उड़ती रहती हैं। जब तक ये टिड्डियाँ उड़ती रहेंगी, तब तक माला में मन नहीं लगेगा। टिड्डियों के प्रति जो रस है, वैसा रस माला के प्रति नहीं हो पाया है। जहाँ रस होता है, मन वहीं गति करता है। इसलिए पहला काम यह करो कि मन में माला और सामायिक आदि के प्रति रस पैदा करो। जड़ पदार्थ के प्रति रस में कमी लाओ।धीरे-धीरे मन की चंचलता समाप्त होती चली जाएगी।
अपने भीतर प्यास पैदा करने के बाद हमें सामायिक में आनन्द आने लगेगा। इसलिए रस पैदा करें, अहोभाव पैदा करें। जिन्दगी के पल निरर्थक बीतते जा रहे हैं। हमें एक-एक पल का सदुपयोग करना चाहिए। मैंने देखा है, बहुत से लोग घंटों ताश खेलते रहेंगे, मगर उनसे कोई सार्थक कार्य करने को कहा जाएगा तो वे कहेंगे, 'समय नहीं है'। __ आदमी जीवन का लगभग एक तिहाई भाग सोने में व्यतीत कर देता है। दूसरा भाग सांसारिक कार्यों तथा गप्पों में बिता देता है और तीसरा हिस्सा कमाने खाने में पूरा कर देता है। सोचो, अपने लिए समय का उपयोग कब करोगे? एक-एक पल मूल्यवान है। उसका सदुपयोग मोक्ष का कारण बनेगा और उसी पल का दुरुपयोग किया तो बंधन होगा। समय खराब नहीं है, हमारे भीतर की भावनाएँ खराब हैं। आकाश में उमड़-घुमड़ कर बादल छा गए । एकाएक छोटी-छोटी बूंदें गिरने लगीं। एक बूंद समुद्र में गिरी और उसमें खो गई। दूसरी बूंद तपते तवे पर गिरी तो 'छम्म' से भस्म हो गई। तीसरी बूंद एक सीप के खुले मुंह में गिरी और मोती बन गई। चौथी बूंद सांप के मुंह में गिरी, जहर बन गई। बूंदें तो सब एक जैसी ही थीं, मगर वे गिरी अलग-अलग स्थानों पर और इससे उन्हें अलग-अलग गति मिली। मूल्यवत्ता उपयोग की है।
मनुष्य अपने जीवन के पलों का उपयोग कैसे करता है? कोई ताश खेलकर बिता देता है तो कोई समायिक कर लेता है । यह तो करने वाले पर निर्भर है कि वह अपने पलों का उपयोग कैसे करता है ? उसे उसी के अनुरूप परिणाम मिलेगा। जीवन के ये पल इतने मूल्यवान हैं कि आवश्यकता पड़ने पर सारी दुनिया का प्रभुत्व देकर भी इन्हें नहीं लौटाया जा सकता।
सारी दुनिया को जीतने वाला सिकंदर जब मरने लगा तो उसने वैद्यों से पूछा कि 'मुझे कुछ दिन और जीने का मौका मिल सके तो मैं आपको अपने शरीर के बराबर सोना देने को तैयार हूँ।' वैद्यों ने इनकार कर दिया'सम्राट, आप मरण शय्या पर हैं। जीवन अब सम्भव नहीं है।' सिकंदर गिड़गिड़ाया—'मुझे एक घंटे की मोहलत दे दो तो मैं पूरा राज्य तुम्हें दे दूंगा।' वैद्य बोले- 'सिकंदर, लाख कोशिश करने के बाद भी अब यह जाता हुआ जीवन लौटाया नहीं जा सकता। जितना जीवन जिसका निर्धारित है, उसे उतना ही जीने को मिलेगा।'
दुनिया को जीतकर भी सिकन्दर अपने को नहीं जीत पाया। आखिर वह विश्व-विजेता हारा तो केवल अपने से। लाखों का प्राण हरण करने वाला सिकंदर अपने प्राणों को बचाने के लिए गिड़गिड़ा उठा पर.... । कहते हैं, उसने मरते समय अपने मंत्री और सेनापति से कहा कि मेरा शव ले जाते समय मेरे दोनों हाथ खुले और लटकाकर ले जाना, ताकि दुनिया को यह नसीहत हासिल हो कि विश्व-विजेता सिकन्दर भी अंत समय में खाली हाथ गया। वह अपने साथ कुछ भी न ले जा सका। यह बात कहने को तो एक कहानी हो सकती है, लेकिन इसमें जो मर्म छिपा है, उसे समझने की जरूरत है।
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