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काटा। और जब मगरमच्छ का पेट काटा गया, तो वहाँ खड़े लोगों ने दाँतों तले अंगुलियाँ दबा लीं। उन्होंने देखा कि दोनों नेता जीवित थे और आपस में गुत्थम-गुत्थी कर रहे थे, क्योंकि वहाँ नेता दो थे और कुर्सी एक थी।
कुर्सी एक और नेता दो, तो यही होना था। पद की लोलुपता ऐसी ही होती है। मनुष्य की वृत्ति तृष्णा की पूर्ति में ऐसी उलझ जाती है कि वह यह तो सोच ही नहीं पाता कि उसे भी मरना है। उसे यही लगता है कि सारी दुनिया तो मरेगी, मगर मैं जीवित रहूँगा।
आपके पड़ौसी के घर मृत्यु होती है तो उसे यूं ही मत समझना। वह आपको संकेत कर रही है कि तुम्हारे घर भी मृत्यु की दस्तक होगी। मृत्यु से कोई बचा नहीं है। मगर आदमी खतरे की इस घंटी की आवाज नहीं सुन पाता। कब तक सोते रहोगे? आखिर अब तो जागो, आखिरी वेला में तुम्हें मौका है कि अपने जीवन का उपयोग कर लो। यह कितना दुःखद है कि झोंपड़ी में रहने वाला आदमी पैसे कमाने के लिए दिन भर जुटा रहता है, तो बात समझ में आती है, पर करोड़पति! शायद मजदूर तो केवल दिन भर जुटा रहता है पैसे के लिए, पर करोड़पति तो दिन-रात जुटा रहता है। उसे विश्रान्ति कहाँ!
देने वाले ने आदमी को सब कुछ दिया है, मगर उसकी तृष्णा नहीं मिटती, वह और चाहता है। गरीब की समस्याएँ कम होती हैं लेकिन लखपति की समस्याएँ लाख होती हैं। __ ऊपर से जो व्यक्ति जितना ज्यादा सुखी दिखाई देता है, भीतर से वह उतना ही दुखी है। अधिक धन वाले अधिक दुखी हैं । कुदरत ने उन्हें कुछ ज्यादा ही समस्याएँ दे रखी हैं।
इस धरती पर जितना पाप है, उसका मूल कारण मनुष्य की लोभवृत्ति है, तृष्णा है। लोभ की वृत्ति इतनी गहरी है कि सारी जिन्दगी पूरी होने के बावजूद इसकी भूख नहीं मिटती। मैं जानता हूँ, एक वृद्ध दम्पत्ति की मृत्यु हो गई। वे अपने पीछे लाखों की सम्पत्ति छोड़ गए थे, मगर उनके संतान नहीं है और सम्पत्ति पर हक़ जमाने के लिए उनके परिवार के लोग न्यायालय में झगड़ रहे हैं । मैं सोचता हूँ, काश! जीवन की सांध्य वेला में वह दम्पत्ति उस सम्पत्ति का सार्थक उपयोग कर जाते।
राजस्थान में एक कहावत है 'पूत सपूत तो क्यों धन संचै और पूत कपूत तो क्यों धन संचै?' मनुष्य को आज की नहीं आगामी सात पीढ़ियों की चिंता है। वह क्यों नहीं सोचता कि आने वाली पीढ़ी सपूत होगी तो अपने आप धन कमा लेगी और कपूत है तो एकत्र धन भी उड़ा देगी। फिर क्यों संचय? मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूँ जो कल करोड़पति थे और आज रोड़पति हैं । जो लोग कल सड़क पर भटकते थे, आज पैसे वाले हैं। धन तो धूप-छांव की तरह आता और जाता है। __ धन-सम्पत्ति अशाश्वत है, इस सत्य को जानने के बावजूद लोभ की वृत्ति समाप्त नहीं होती। पल-पल इस वृत्ति में वृद्धि होती जाती है, कम होने का तो सवाल ही नहीं उठता। महावीर ने ढाई हजार साल पहले जो बातें कही थीं, वे आज भी प्रासंगिक हैं । गरीब से ज्यादा अमीर के मन में लोभ की वृत्ति है। गरीब सौ रुपए बचाना चाहेगा तो अमीर लाख रुपए के संग्रह का लोभ करेगा। लोभ और चाह की वृत्ति जब तक बढ़ती जाएगी, तब तक व्यक्ति सन्मार्ग पर कदम नहीं बढ़ा पाएगा। चाह की आह उसके जीवन में आग लगा देगी। ऐसी आग जिसे
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