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प्रव्रज्या, जिसका सम्बन्ध जीवन के साथ था, हमारे अन्तर्-व्यक्तित्व के साथ, हमने मात्र बाह्य व्यक्तित्व से ही उसे जोड़ रखा है । प्रव्रज्या देने-लेने से पहले यह नहीं देखा गया कि बाहर में जो प्रव्रजित होने के भाव दिख रहे हैं, क्या अन्तरंग में भी उन भावों की कोई चमक है ? अन्तरंग प्रव्रजित रहा है या नहीं। दीक्षा मात्र वेश बदलकर जीवन जीने का अभ्यास नहीं, अपितु जीवन रूपांतरण की साधना है ।
मैंने देखा है, कुछ साधु लोग अपने पास ६-७ वर्ष के बच्चे रखते हैं । कहते हैं इसमें अभी से वैराग्य के बीज बो रहे हैं। मेरे प्रभु! उनको पूछो कि क्या अभी तक इस बच्चे ने राग की परिभाषा भी जानी है ? तुम किसी प्रलोभनवश अगर एक ७-८ वर्ष के बच्चे को दीक्षा के लिए प्रेरित कर रहे हो तो यह न तो तुम्हारे लिए लाभदायक है, न बच्चे के लिए। भले ही ऐसा करके तुम पांच-दस शिष्यों के गुरु कहला लोगे, पर उस बच्चे के जीवन के साथ यह क्या सरासर नाइंसाफी नहीं होगी ? माना कि आज वह बच्चा आठ वर्ष का है, आपने चाहे जैसे उसे मोड़ दिया, लेकिन अट्ठाईस वर्ष का होने के बाद क्या वह अपने जीवन के लिए सोचने की विचारशक्ति नहीं रखेगा ? आठ और अट्ठाईस, जिंदगी के इन दोनों पड़ावों में काफी फर्क होता है । एक बहिन जिसने किसी महाराज के पास ७ वर्ष का बच्चा देखा। पूछने पर उसे बताया गया कि इसे दीक्षा का, साधु-जीवन का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। वह बहिन मुझे कहने लगी, महाराजजी ! उस मासूम बच्चे को देखकर मुझे तो दया हो आयी । वह अभी तक यह भी समझ नहीं पाया है कि किसे दुनिया कहते हैं और किसे दीक्षा ? आखिर यह कैसी दीक्षा ! कैसी प्रव्रज्या ! क्या युग की हवा उसके अंतरमन को प्रभावित नहीं करेगी !
दीक्षा मात्र किसी प्रेरणा से नहीं अपितु बोधपूर्वक ली जानी चाहिये, ताकि मनुष्य इस मार्ग पर मात्र बाहर से ही श्वेत वस्त्रधारी न हो, अपितु उसका अन्तरंग भी शुभ्र - श्वेत हो जाये । वहाँ संसार को छोड़ने का प्रयासअभ्यास नहीं, अपितु स्वतः छूटना हो जाये ।
इसलिए मेरे प्रभु ! हम प्रव्रज्या के अंतरंग से वाकिफ हों। आप भले ही बाहर से प्रव्रजित न हो पायें, पर अपने अन्तरंग में प्रव्रज्या घटित कर सकते हैं। बाहर के संसार से मुक्त होना शायद सहज है, पर अन्तर के संसार का क्या होगा ? बाहर के संसार को चाहो तो एक क्षण में छोड़ सकते हो, पर भीतर का संसार ! जिसे अथाह संसार कहा गया, संसार सागर, शायद वह मनुष्य के भीतर ही है। बाहर का संसार तो काफी सीमित है, पर भीतर का संसार असीम है। साधना का मूल सम्बन्ध भीतर के बन्धनों से मुक्ति पाना है । भीतर के बन्धनों से मुक्ति पाने के उपाय बाहर की रेडिमेड पुस्तकों से नहीं मिलेंगे। किताबों से बौद्धिक प्रश्नों का जवाब मिल सकता है, पर जीवन के प्रश्नों का नहीं मिलता। महावीर और बुद्ध भीतर के बन्धनों को जानने और मुक्त होने के लिए ही वन में गये । बाहर का संसार तो क्षण-भर में छूट गया, पर भीतर का संसार नहीं छूटा। | उससे मुक्त होने
लिए उन्हें वर्षों साधना करनी पड़ी। हकीकत में तो संसार मानसिक है, भौतिक नहीं है । वस्तुओं का संसार तो पलभर में त्यागा जा सकता है, पर मन का संसार, स्वप्नों का संसार ! यह तो सब कुछ छोड़-छाड़ कर हिमालय
किसी गुफा में भी जाकर बैठ जाओगे, तो भी तुम्हारे भीतर जीवित हो सकता है ।
मेरे देखे संन्यास का तात्पर्य मात्र संसार को छोड़ना नहीं है । पत्नी, पति, पुत्र, परिवार, पैसा छोड़ना कोई
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