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________________ क्योंकि उनको सोना ही अच्छा लगता है। कभी दुर्योधन ने कहा था-'जानामि धर्मम् न च मे प्रवृत्तिः, जानामि अधर्मम् न च मे निवृत्ति: अर्थात् यद्यपि मैं धर्म को जानता हूँ फिर भी धर्म में प्रवृत्त नहीं हो पाता। मैं अधर्म को भी जानता हूँ फिर भी उससे निवृत्त नहीं हो पाता।' क्यों? मूर्छा है। एक धृतराष्ट्र भीतर बैठा हुआ है। मूर्छा का अंधापन, अज्ञान का अंधापन मनुष्य पर हावी है इसलिए सही बात उसके दिमाग में उतर नहीं पाती। अगर किसी पर शनि हावी हो तो चाहे जितना कहो कि शनि महाराज की माला जपो, पर वह नहीं जपता क्योंकि शनि महाराज उसे ऐसा करने ही नहीं देते। ययाति जैसे लोग हजार वर्ष का जीवन जीकर भी, एक हजार रानियों का उपभोग करके भी, एक हजार महलों में रहकर भी, एक हजार संतानों को जन्म देकर भी मुक्त नहीं हो सकते। और ययाति का बेटा पुरु अपने पिता की तृष्णा को समझ-समझ कर ही मुक्त हो जाता है। नौ बार तक वही छोटा बेटा अपनी आहुति देता रहा। आखिर दसवीं बार जब मौत आई तो उसी छोटे बेटे ने कहा, 'अंतिम बार मरने से पहले मैं आपसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ।' यह प्रश्न पिता से नहीं एक मूर्च्छित व्यक्ति से था, एक तृष्णाग्रस्त, भोग-विलासिता में जकड़े हुए व्यक्ति से किया जाने वाला प्रश्न था। उसने कहा, 'बाबा, सच-सच बताओ कि हजार वर्ष जीकर, अनेक भोगोपभोग करके भी क्या आपका मन तृप्त हुआ है?' पिता ने कहा, 'बेटा तुमसे क्या झूठ बोलना! तुम तो मेरे लिए मरने को तैयार हो। सच्चाई यही है कि जो तृष्णा, जो विलासिता की भावना, जो मूर्छा आज से हजार वर्ष पहले थी, वही आज भी है।' आज भी उसे वही अच्छा लग रहा है जैसे संसारी लोगों को सोना अच्छा लगता है। बेटे ने कहा, 'मृत्यु, मेरे पिता नहीं जानते कि अब तक उनके लिए कुर्बानी देने वाला कौन व्यक्ति रहा, लेकिन मौत तुम तो जानती हो कि वह व्यक्ति मैं ही हूँ जिसने अब तक दस बार अपने पिता के लिए जीवन दिया। हर बार मरते वक्त मेरे मन में यह जिज्ञासा और यह प्यास रहती थी कि मेरे पिता ने तो कितनी ही राजरानियों का भोग किया किन्तु मैं तो एक का भी नहीं कर पाया। फिर मेरा इस जीवन को पाने का क्या अर्थ हुआ? हर बार मैं अपने प्रश्न को अधूरा लिये ही चला गया लेकिन मृत्यु, आज तृप्त होकर ऐसे मिटेगी, देश की गरीबी ८९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003856
Book TitleWah Zindagi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2005
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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