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________________ अलावा तुम्हारा कोई न होगा।' यह कहते हुए संत वहाँ से निकल गया। गणिका ने अपने घर के दरवाजे औरों के लिए बंद कर दिये क्योंकि संत ने कहा था कि जब तुम्हारा कोई न होगा तब मैं तुम्हारा बनूँगा। ग्राहक रोज आते, पर कोई भी गणिका के पास न पहुँच पाता। गणिका पहले से ही देह-व्यापार करती रही थी सो उसे संक्रामक रोग हो गया। वह कोढ़ से पीड़ित हो गई। गणिका की देह गलने लगी। उसके शरीर से दुर्गंध उठने लगी। खून, मवाद, पानी उसके शरीर से रिसने लगा। राजा तक यह खबर पहुंची तो राजा ने उसे नगर से निकलवा दिया। अकेली, नगर के बाहर वृक्ष के नीचे बैठी हुई भगवान से प्रार्थना करने लगी, ‘भगवन, तू किसी को चाहे जैसा जन्म देना पर किसी को तू मेरे जैसी नारी मत बनाना। मैंने अपनी जिंदगी में केवल पाप ही बटोरे हैं और उन पापों का जो परिणाम आज मुझे भुगतने को मिल रहा है, वह किसी को न देना। हे प्रभु, मैं तो एक गरीब घर में पैदा हुई थी और मुझे अपनी रोजी-रोटी के लिए शरीर को बेचना पड़ा था, लेकिन वे लोग जो मेरे यहाँ आए थे, वे कौन से मज़बूर थे?' वह रोती जाती थी और भगवान से प्रार्थना करती जाती थी। तभी उस अंधियारी रात में उसने पाया कि किसी व्यक्ति ने उसके कंधे पर हाथ रखा है। वह चौंकी, ऊपर देखा तो पाया कि वह व्यक्ति वही संत है। गणिका फूट-फूट कर रोने लगी और कहती रही, मेरे प्रभु, इतने वर्षों तक मैंने तुम्हारी प्रतीक्षा ही प्रतीक्षा की, पर तुम न आए। अब तो मेरे पास कुछ भी नहीं बचा है जो मैं तुम्हें दे सकूँ । मेरे शरीर से खून मवाद, पीप, पानी रिस रहा है। अब मैं तुम्हें कुछ भी देने में समर्थ नहीं हूँ। संत ने कहा, 'मैंने कहा था न, जब कोई तुम्हारा न होगा तब मैं तुम्हारा बनूँगा। आज तुम अपनी काया मुझे सौंप दो ताकि मैं उसे ठीक कर सकूँ।' इतना कहकर संत ने उस गणिका के घावों को धोया, अपने संत-जीवन की पवित्र चदरिया से मवाद और खून को पौंछा। संत की पवित्रता और अर्जित पुण्यों के प्रभाव से, मात्र चदरिया से उसको पौंछने से उसके घाव ठीक होने लगे। एक माह की सेवा करने से वह गणिका पूरी तरह स्वस्थ हो गई। कल तक की गणिका को संत ने जीवन के ऐसे संदेश आइए, प्रेम की दहलीज पर ४१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003856
Book TitleWah Zindagi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2005
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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