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________________ को? कौन समझेगा प्रेम की पुकार को? हर आदमी प्रेम का नाम सुनते ही घबरा जाता है, भयभीत हो जाता है। लोगों को लगता है कि प्रेम तो समाज में निंदा का कारण है लेकिन जान लीजिए कि जब तक हृदय में प्रेम की वीणा की झंकार नहीं होती तब तक जीवन में रिक्तता और अभाव का आलम ही बना रहता है, प्रेम ही शांति है, प्रेम ही पवित्रता और खुशबू है। अरे, प्रेम से बढ़कर पुण्य क्या? प्रेम से बढ़कर धर्म भी क्या? प्रेम ही ज्ञान है। कबीर कहते हैं जिसने प्रेम को जान लिया वही ज्ञानी है। बाकी सब तो किताबें पढ़-पढ़कर पंडित हो गए हैं। जिसने प्रेम की गहराई को जीया, वही ज्ञानवान कहला सकता है। जिसकी दृष्टि प्रेमपूर्ण है, वही धार्मिक है। अहिंसा को भी कैसे जीओगे, प्रेम के बिना? माना कि अहिंसा के नाम पर मैंने आपको कष्ट नहीं पहुँचाया लेकिन इतने मात्र से.जीवन की खुशी नहीं मिलती। चांटा न मारना अहिंसा हो सकता है लेकिन स्नेह से माथा चूमना अहिंसा का विस्तार और प्रेम की प्रगाढ़ता का ही परिणाम है। यह अहिंसा को जीने का आधार है। जिसने प्रेम को समझा, उसने जीवन जीने का मार्ग पा लिया। प्रेम आत्मा को पाने का, परमात्मा तक पहुँचने का मार्ग बन सकता है। प्रेम तो समर्पण का, स्वयं को मिटाने का रास्ता है। प्रेम संबंध मात्र नहीं है बल्कि उससे भी ऊपर है क्योंकि संबंधों में तो राग और विराग होता है जबकि प्रेम है परम वीतराग जिसमें अपने प्रिय के लिए कुछ भी किया जा सकता है। सूफी संतों से पूछो, वे बताएँगे तुम्हें कि प्रेम क्या है? प्रेम कुर्बानी है, प्रेम मार्ग है, प्रेम परमात्मा है। "ऐसा हुआ कि जो उद्धव हमेशा ही ज्ञान और वैराग्य की बातें किया करता था, वह मन में सोचा करता था कि इस कृष्ण को न जाने कैसा पागलपन सवार है कि जो कहलाते तो हैं विष्णु के अवतार लेकिन हमेशा घिरे रहते हैं गोपियों से। अनासक्त योगी कहलाने वाले की यह अनासक्ति समझ में नहीं आती। एक बार उद्धव कृष्ण से बातें कर रहे थे कि अचानक कृष्ण पेट पकड़कर कहने लगे, 'उद्धव, मेरे पेट में दर्द हो रहा है। जाओ, किसी वैद्यराज को बुला लाओ।' उद्धव वैद्यराज को बुला लाए। वैद्य ने नब्ज़-नाड़ी देखकर कहा, 'महाराज, आपका यह पेट का भयंकर शूल किसी साधारण औषधि से मिटने आइए,प्रेम की दहलीज पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003856
Book TitleWah Zindagi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2005
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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