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वसन्त-होरी
(१४३ )
ज्ञान गुलाल ने प्रेम पिचरका,
सो डारत छिन छिन में । ए. स. सो.।४। सु. ऐ.। वाणी अनहद वाज वजत है,
हास हसत आपन में। ए. स. हा. शस. ऐ.। गिरवाई सो गोठ जिमत है,
चतुरोई चौपर में । ए. स. च. १६। सु.ऐ.। प्रोत रीत सो प्याले पीवत,
मन भए मस्ताई में । ए. स. म. सु. ऐ.। 'अमरसिंधुर' ऐसे खेल मचत है,
अपणे अनुभव रस में । ए. स. अ. सु. ऐ.।
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वसंत-होरी
राग-वसन्त वसंत सुवरषा आई, सखी मेरी वसंत । निज घर से नर त्रिय वन आए, सो बादरीय बनाई। पिउ प्यारी हिल मिल के खेलत, सो सुभ बादल आई।१।१०। लाल गुलाल अबीर उडावत, सो रज नभ वन छाई। केसर की पिचकोरी चलत है,सो वरषा झरीय लगाई ।२।०। डफ चंग वजत सु गाज गत है, रंग सु धनुष सुहाई। चंचल नयन सो दामनि चमकै, सुरत घटा घन छाई ।३।१०।
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