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________________ युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि-चरितम् पगिबेडी हाथे दसकला, एणीपरे दिवस गया केटला । करइदंड मुकावइ तेह दुख दिउ अति तिहां नहि रेह ॥४॥ पेटलादि हाकिम एम कीध, बारहजार मुद्रा तेणे लीध । छुटा मरुमंडलि ते गया, तोहइ मनि उजल नही थया॥शा इत्यादि श्री देवसूरितो देव सूर-शाखा तपागणे। जाता पश्चात्पृथग्भूतैः सागरैः सागरी पुनः ॥३॥ खण्डन-मण्डन प्रथा-त्तद्रचितात्परस्परं । उत्सूत्रोत्पत्तिनामादि, ज्ञयं मध्यस्थदृष्टिभिः ॥३६।। स्वोत्सूबाच्छादनायान्योत्सूत्र संस्थापने मिथः । न ते टलंति मूढाः का, कथान्योत्सूत्रि जल्पने ॥३७॥ श्री जिनचंद्रसूरीणां, वर्षा स्थितिरभूद्यदा। तदानीं पत्तने धर्म-सागरस्यापि दुर्मतेः ॥३८॥ खरतर गणोद्योता-सहिष्णु धर्मसागरः। ईर्षया ज्वलमानौत्र, लोकानां पुरतो जगौ ॥३६॥ नवांगीवृत्ति कर्त्तारो, नेवखरतरे भवन् । अभयदेवसूरीन्द्रा, नात्रस्युरिदृशायतः॥४०॥ अस्योत्पत्तिरभूद्व दा-काश हस्तेन्दु वत्सरे । तेनोष्ट्रिक मतोत्सूत्र दीपी तत्व-तरंगिणी ।।४।। आदि ग्रन्थां श्वसंदा-खिले जैने परस्परम् । विरोधो वर्द्धि तो दूरी-कृता मैत्रीयभावना ४२॥ युग्मम् ।। [ १६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003816
Book TitleYugpradhan Jinchandrasuri Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherAbhaychand Seth
Publication Year1971
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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