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________________ अवधूत योगीन्द्र श्री आनन्दधन श्रीमद् आनन्दघनजी महाराज का न केवल जैन समाज में ही अपितु भारतीय साहित्य में मूर्धन्य स्थान है। वे उच्च कोटि के अध्यात्म तत्त्वज्ञ, निष्पृह साधक मस्त अवधूत योगी थे। वे उच्च कोटि के विद्वान, आत्मद्रष्टा और सम्प्रदायवाद से ऊँचे उठे हुए महापुरुष थे। उनकी रचनाएँ केवल चौवीसी, बहुत्तरी, कुछ पद एवं फुटकर कृतियों के अतिरिक्त अधिक न होने पर भी अत्यन्त गम्भीर और गहरे आशयवाली होने से तत्त्व चिन्तक को चिरकाल तक अध्ययन, मनन और आत्म विकास करने की सामग्री प्रस्तुत करती है। श्रीमद् की रचनाओं पर गत ८० वर्षों में मूल और विवेचन सम्बन्धी पर्याप्त प्रकाशन हुए हैं और वे प्रकाशन उच्च कोटि के विद्वानों द्वारा गुजराती भाषा में हुए हैं। हिन्दी भाषा और खरतरगच्छ में तो केवल एक ग्रन्थ श्री उमरावचन्दजी जरगड़ द्वारा तैयार होकर प्रकाशित हुआ। ये सभी प्रयत्न बीसवीं शताब्दी के हैं। उनके समकालीन विद्वानों में सर्वप्रथम उपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज ने लिखा था, वे स्वयं श्रीमद् के सम्पर्क में आये थे और उनकी प्रशंसा में अष्टपदी की रचना की जो पर्याप्त प्रसिद्ध है। उपाध्यायजो महाराज समर्थ विद्वान और अजोड़ ग्रन्धकार थे। वे न्याय, तर्क, दर्शन आदि सभी विषयों के शताधिक ग्रन्थ रचयिता थे पर दुर्भाग्यवश उनके अधिकांश ग्रन्थ आज अलभ्य हैं । श्री आनन्दघनजी महाराज की स्तवन बावीसी पर बालावबोध रचने का नामोल्लेख मात्र मिलता है। यदि ग्रन्थ प्राप्त होता तो सोने में सुगन्ध जैसा होता। दूसरे बालावबोधकार हैं श्री ज्ञानविमलसूरि। कहा जाता है कि वे उनके सम्पर्क में आये थं और आनन्दघन पद संग्रह के अनुसार उनके स्तवनों की नकल स्वयं उपाध्यायजी ने कराई थी। मेरे नम्र मतानुसार श्री ज्ञानविमलसूरि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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