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९ सुविधि जिन चेत्यवंदन
उभय शुचि भावे भजी, पूजत सुविधि जिनेश ; प्रसन्न चित्त आणा सहित, स्व स्वरूप प्रवेश... १
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अंग-अंग ओ निमित्त छे, उपादान छे भाव ; प्रतिपत्ति-पूजा तिहां, प्रगटे शुद्ध स्वभाव २
शुद्ध स्वभावी संतनी, सेव थकी लहो मर्म ; स्वरूप सेवन थी लहो, सहजानंदघन धर्म ३
१० शीतल जिन चैत्यवंदन
भासे विरोधाभास पण, अविरोधी शीतल हृदये ध्यावतां, नाशे भव भ्रम
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भाव ;
स्वरूप रक्षण कारणे कोमल तीक्षण उदासीन पर द्रव्य थी, रहिए आप स्वभाव २
११ श्रेयांस जिन चैत्यवंदन
स्वानुभूति अभ्यास ना, अनन्य कारण सन्त ; सहजानंदघन प्रभु भजो करो भवोदधि अंत ३
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गुण-वृन्द ; फंद... १
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भाव अध्यातम पथमयी, श्रेयांस सेवा धार ; हठयोगादिक परिहरी, सहज भक्ति-पथ सार....१ देह - आत्म- क्रिया उभय, भिन्न म्यान असि जेम ; जड़ किरिया अभिमान तज, संवर किरिया प्रेम...२
ज्ञानादि गुण वृन्द पिंड, सोहं अजपा जाप ; संत कृपा थी पामिए, सहजानंदघन आप....३
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