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१७. श्री कुन्थु-जिन स्तवनम् मन को दुराराध्यता:
सन्त आनन्दघनजी के उपरोक्त अनुभूति मूलक बोधामृत का पान करके वह मुमुक्षु आश्चर्यचकित और स्तब्ध हो गया। कुछ क्षणों के पश्चात् वह दीनता पूर्वक बोला कि 'भगवन्' आपने अपनी अनुभव गाथा सुनाकर मुझे जो उत्साहित किया तथा अनुभूत प्रयोगों को आजमाने के लिए आदेश दिया-इसे मैं आपका कृपा-प्रसाद समझता हूँ। अब मुझे विश्वास हो गया कि मेरे शिर छत्र समर्थ-गुरु मुझे मिल गए। मेरे लिए तो आप ही साक्षात् 'जिन' है क्योंकि आपने दर्शन-मोह को जीत कर अपने अनन्त ऐश्वयं-युक्त परम निधान का साक्षात्कार कर लिया है। पर प्रभो आपके अनुभूत प्रयोग की मैं किस तरह अजमाईश करू ? क्योंकि अजमाईश का होना तभी सम्भव है जबकि मन स्व-वश हो, परन्तु मेरा मन तो स्व-वश नहीं है अतः वह किसी भी साधन में नहीं लगता। मेरे इस कंथ जितने कुथित मन ने मुझे परेशान कर दिया है नाथ ! अधिक क्या कहूँ मैं तो मन के आगे विवश हूँ। सन्त आनन्दघनजी-- अरे बावरे ! तू हताश क्यों होता है चाहे तेरा मन कितना ही कुथित हो पर है वह कुन्थ जितना न ? तब देखता क्या है चढ़ा दे उसे कुन्थु-जिन चरणों में। क्योंकि सच्चाई के साथ प्रभु चरणों में मन की बलि चढ़ाने पर वहाँ वह किसी भी तरह लग जायेगा-स्थिर हो जायगा।
१. मुमुक्षु-भगवन् ! श्री कुन्थु जिनेश्वर के चरणों में मेरा यह पाजी-मन निश्चित रूप में कैसे लगे क्योंकि वैसा प्रयत्न करते-करते मैं तो हार गया। ज्यों-ज्यों इसे प्रभुचरणों में रखने की कोशिश करता हूँ त्यों-त्यों यह मरकट वहाँ से दूर ही दूर भागता फिरता है, परन्तु क्षण भर भी प्रभु-चरणों में नहीं टिकता।
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