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________________ हुआ। इन अमित फल-दान दातार ने केवल तुझे ही नहीं प्रत्युत जो भी कृपा-पात्र मिले उन सभी को अपने तुल्य बनाया है और बनाते रहते हैं। बाहर में तो केवल हद के ही गुरु मिलते है अतः साधक केवल उन्हीं के सहारे बेहद में प्रवेश नहीं कर पाता । ॐ बाद अब मेरी भाव-समाधि खुल गई तब मैंने जो कुछ किया वह तुझे प्रथमतः सुना दिया है। १४. प्यारे ! यह मेरी अनुपम कथा है। ऐसी अनुभव की बातें शायद तेरे-पढ़ने-सुनने में न आयी हो अतः इस कथन पर तुझे विस्मय और अनेक विकल्प भी उत्पन्न हो सकते हैं । तुझे यदि इन बातों की परीक्षा करनी हो तो जिस तरह मैंने प्रयोग किया उसी तरह तू भी सच्चाई से प्रयोग करके देख ले, जिससे तुझे भी प्रतीति हो जाय कि यह कथन सच है या झूठ ? झूठ बोलकर न तो भव भ्रमण बढ़ाना है और न तेरे से कुछ लेना देना है। केवल निष्कारण करुणावश ही मैंने तुझे यह अनुभव गाथा सुनाई है ; जिसमें कि तेरे प्रश्नों के समाधान के रूप में आत्मशान्ति का स्वरूप, उसे प्राप्त करने के उपाय और स्वभाव - परभाव का स्वरुप भी संक्षेपतः आ गया। त्रिजगपति जिनेन्द्र श्री शान्तिनाथ भगवान ने जिन शब्दों में यह जो कुछ कहा था उन्हीं शब्दों को मैंने दोहराया है। उपरोक्त विषय को तुझे यदि विशेषतः समझने की इच्छा हो तो जिनागमों में गोते लगाकर देख लेना क्योंकि जिनवाणी में इन विषयों पर अनेक युक्ति-प्रयुक्तियों पूर्वक अत्यधिक विस्तार से बहुत-कुछ उल्लिखित है। पर याद रखना ! कि शास्त्रों में अनुभव मार्ग के प्रति केवल इशारा ही किया गया है अतः गुरुगम से उसके मर्म को समझे बिना अनुभव-पथ में गति नहीं होती और अनुभवशून्य गुरुओं की केवल कल्पना रम्य बातों से भी उस पथ में प्रवेश तक नहीं हो पाता। फलतः वैसी बातों और शास्त्रों में गोता लगाते हुए चाहे जिन्दगी बिता दो, पर मन का धोखा नहीं मिट सकता। इस १२८] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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