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कुशलता से सिझाया जाय तो सीझने पर उनमें रस पैदा हो जाता है, जिससे उदराग्नि शान्त हो सकती है। वैसे ही भव रोग मिटाने के लिए सीधे निराकार आत्म-ध्यान करना तो मानो पात्र बिना ही चावल सिझाना है, परिणामतः साधकीय चेतना अभिमान आदि अग्नि से झुलस जाती है, जो साधना के भी उचित नहीं रहती। परन्तु यदि उसे परमात्म-स्वरूप प्रेम-पात्र में अर्पित करके प्रेम-जल से सींच कर सिझाया जाय तो वह सकुशल सीझ कर उसमें आनन्द-रस प्रकट हो जाता है, जिससे सुगमतया साधकीय हृदय की त्रिविध-तापाग्नि शान्त हो जाती है यावत् भव-रोग मिट जाता है। अतः प्रेम-लक्षणा-भक्ति पूर्वक साकार उपासना से आत्म-साक्षात्कार करके ही निराकार आत्म ध्यान हो सकता है, सीधे ही नहीं। इसीलिये भक्ति मार्ग को सरल मार्ग कहा है। आत्म साक्षात्कार के पूर्व साकार उपासना के बिना साधक, या तो शुष्कज्ञानी बन जाता है; या क्रिया जड़। वैसी हालत में इस डिब्बे को कोई आत्मज्ञ-इंजन की शरण लेकर उनके पीछे-पीछे चलने के सिवाय चारा ही नहीं है। अन्यथा वह दृष्टि-अन्ध, स्टेशन पर ही पड़ा रहेगा, पर गन्तव्य स्थल की ओर एक कदम भी बढ़ नहीं सकेगा।
समिति-गुप्ति-रूप साध्वाचार में गुप्ति-काल तक कर्म शत्रुओं से धर्म-युद्ध चलता है। उसमें थकने पर समिति-काल तक धर्मयुद्ध में आगे बढ़ने के लिये उचित साधन-सामग्री और क्षमता जुटा ली जाती है। बीच के अवकाश में कोई उदारचेता योद्धा निष्कारण करुणावश शरणागतों को धर्मयुद्ध का महात्म्य समझाकर तदनुकूल तालीम भी सिखाते हैं।
जैन साध्वाचार में प्रतिक्रमण आदि सभी क्रियाओं के विधिनिषेध, केवल धर्मयुद्ध कौशल भरी योग-साधना है। जिसमें जिनदशा
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