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भी रखते थे, फिर भी परस्पर प्रीति भेद नहीं था । यह प्रणाली दिगम्बर सम्प्रदाय में मुनि, एलक, और क्षुल्लक के रूप में अब तक प्रचलित है पर श्वेताम्बर सम्प्रदाय में नहीं रही । जिसका कारण निम्न प्रकार प्रतीत होता है
जब बारह वर्षीय दुष्काल पड़ा तब द्वितीय श्री भद्रबाहु स्वामी श्रमण संघ सहित दक्षिण देश में जाकर विचरे । वहाँ देश, काल और परिस्थिति अनुकूल थी अतः मूल प्रणाली टिक सकी; जबकि इतर प्रदेशों में प्रतिकूलता के कारण वह विच्छिन्न हो गई । काल क्रम से ज्यों-ज्यों लक्ष्य भेद होता गया, त्यों-त्यों प्रीति भेद भी बढ़ता गया और सम्प्रदायवाद खड़ा हो गया, फलतः प्राचीन पद्धति वालों ने दिगम्बर और नयी पद्धति वालों ने श्वेताम्बर सम्प्रदाय कायम कर लिया । फिर तो क्रमशः दोनों सम्प्रदायों में अनेक उपसम्प्रदाय बढ़ाकर मतार्थियों ने जैन - शासन को चलनीवत छिद्रित कर दिया ।
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दिगम्बरत्व के आग्रह के कारण दिगम्बर सम्प्रदाय में संयमोपकरणों की अधिकता की तो गुंजाइश ही नहीं रही अतः मुनिदशा में केवल पीछी - कमण्डलु और एलक - दशा में पीछी- कमण्डलु एवं कोपीन रखते हैं । ये दोनों ही पाणिपात्र हैं । गृहस्थों द्वारा पडगाहे जाने पर मुनि खड़े-खड़े एवं एलक बैठे-बैठे एक जगह ही प्रासुक आहार- जल ग्रहण करते हैं तथा क्षुल्लक दशावालों के लिये पीछी - कमण्डलु, एक धातु पात्र, एक झोली, चार हाथ प्रमाण तक की एक चादर और सात घरों से भिक्षा ग्रहण करके जहाँ प्रासुक जल मिल सकता हो उस घर में बैठ कर आहार - विधि समाप्त करने का विधान है। इन तीनों श्रेणी में कम-से-कम ठाम चोविहार एकासन की ही प्राणान्त तक प्रतिज्ञा है, जिसमें दुवारा औषध किंवा जल लेने का भी अपवाद नहीं है । जिसे सभी त्यागी अब तक निभा रहे हैं । केवल, क्षुल्लक सात घरों की भिक्षा पद्धति छोड़ कर एक ही घर की भिक्षा ग्रहण करते हैं
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