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गच्छ को अन्यान्य शाखाओं के दफ्तर मिल जाए तो कितना उत्तम हो । वीकानेर श्रीपूज्यों की गद्दी का दफ्तर देखा है एवं आचार्य शाखा की कुछ दोक्षानन्दी सूचियां मिली हैं । अन्य सभी शाखाओं की सामग्री खो गईं, नष्ट हो गई है । परन्तु प्राप्त दफ्तर में जो यति / मुनियों को नामावली दी है वह मूल पुस्तक के अग्र भाग में दा गई है। इस नामावली में दी गई दीक्षाएं केवल एक वर्ष में और एक ही नन्दी में हुई हैं। श्री जिनरत्न सूरिजी श्रीपूज्य आचार्य थे जो त्यागी, पंच व्रतधारी थे । उस जमाने में सभो गच्छों में गच्छनायक श्रीपूज्य कहलाते और उन्हें यति कहा जाता था । साधु, यति, ऋषि, मुनि, श्रमण, निर्ग्रन्थ, भिक्षु, मुण्ड श्रादि १० पर्यायवाची शब्द हैं । सं० १७०७ से पूर्व श्री जिनरलसूरिजी या उनके पूर्ववर्ती आचार्यों ने दीक्षाएँ दीं, उनकी सूची अप्राप्त है । इस सूची से वे कहां-कहां विचरे, कहां किसे और किस संवत् मिती, स्थान में दीक्षा दी, गुरु का नाम, गृहस्थावस्था का नाम, दीक्षानाम, शाखा आदि अनेक बातों का पता चल जाता है। एक-एक नन्दी में, बीस, पचास, सत्तर तक दीक्षाएँ हुईं जिनका प्रामाणिक विवरण ऐसे दफ्तरों में मिलता है । यदि इतिहासकारों के पास ऐसे 'हुमूल्य दस्तावेज हों तो उनकी अनेक समस्याएं हल हो सकती हैं । प्रामाणिक विवरण प्राप्त करने का परिश्रम और समय की बचत हो सकती है । रास, चौपाई, तीर्थमाला, शिलालेख, प्रशस्तियों प्रादि सन्दर्भ समर्थित प्रामाणिक इतिहास लिखा जा सकता है ।
नन्दी या नामान्त पद सम्बन्धी जिन-जिन मर्यादाओं, विधानों का ऊपर उल्लेख किया गया है वह सब खरतरगच्छ की श्री जिनभद्रसूरि परम्परा - बृहत्शाखा के दृष्टिकोण से यथाज्ञात लिखा है । सम्भव है इस विशाल गच्छ की अनेक शाखात्रों की परिपाटी में भिन्नता भी आ गई हो । यह शोध का विषय सामग्री की उपलब्धि पर निर्भर है ।
वर्तमान में उपर्युक्त परिपाटी केवल यति समाज में ही है। जहां परम्परा में हजारों यतिजन थे वे क्रमशः आचारहीन होते गये, क्रिया उद्धार करने वाले मुनिजनों से उनका सम्बन्ध विच्छेद होता गया । कुछ आवारात विद्वानों के अतिरिक्त यतिजन भी गृहस्थवत् हो गये. मर्यादाएँ मरणोन्मुख होती जाने से अब दफ्तर लेखन प्रणाली भी नामशेष
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