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कुमार आदि प्रचलित हैं उसी प्रकार गूर्जर देश का भी समझना चाहिए क्योंकि प्राचीन काल में दोनों भाषाएं एक ही थीं। अब तो अनेक नाम प्रान्तीय सीमाओं का उल्लंघन कर सर्वत्र प्रचलित हो गए हैं। पूर्वकाल में वेश-भूषा और नामों से देश व जाति की पहचान हो जाती थी किन्तु वह भेद अाजकल गौण होता जा रहा है, अस्तु । - तीर्थंकर महावीर के काल में प्रवजित हो जाने पर नाम-परिवर्तन की अनिवार्यता नहीं देखी जाती। इतिहास साक्षी है कि सभी श्रमणादि अपने गृहस्थ नाम से ही पहचाने जाते थे। तब प्रश्न होता है कि गृहस्थावस्था त्यागकर मुनि होने पर उनका नाम परिवर्तन कर नवीन नामकरण कब से और क्यों किया जाने लगा? इस पर विचार करने से लगता है कि चैत्यवास के युग से यह प्रथा आरम्भ हुई होगी, पर इसका कारण यही लगता है कि गृहत्याग के पश्चात् मुनिजीवन एक तरह से नया जन्म हो जाता है। गृह-सम्बन्ध विच्छेद के लिए वेश-परिवर्तन की भांति गृहस्थ सम्बन्धी रिश्ते, स्मृतिजन्य भावनाओं का त्याग, मोहपरिहार और वैराग्य-वृद्धि के लिए इस प्रथा की उपयोगिता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। श्री आत्मारामजी म० ने 'सम्यक्त्वशल्योद्धार' के पृष्ठ १३ में बतलाया है कि 'पंचवस्तु' नामक ग्रन्थ में इस प्रथा का उल्लेख पाया जाता है।
नाम परिवर्तन की प्रथा श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय में प्रचलित है जो स्थानकवासी, तेरापंथी, लोंका, कडुआमती के अतिरिक्त मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में तो है ही, परन्तु वे लोग स्वामी, ऋषि, मुनि आदि विशेषण मात्र लगा देते हैं। आजकल तो तेरापंथी समाज में भी नाम परिवर्तन करने की प्रथा कथंचित प्रचलित हो गई है। दिगम्बर सम्प्रदाय में सागर भूषण, की ति प्रादि नामान्त पद प्रचलित हैं । यतः--शांतिसागर, देशभूषण, महावीर कीर्ति तथा प्रानन्द नन्दी भी विद्यानन्द, सहजानन्द आदि के साथ-साथ चन्द्र और सेन भी गण-संघ की परिपाटी में प्रचलित है। वर्तमान काल में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के तपागच्छ में सागर, विजय विमल और मूनि एवं खरतरगच्छ में भी सागर व मुनि नाम प्रचलित हैं। पायचन्दगच्छ में चन्द्र और अंचलगच्छ में सागर नामान्त
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