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________________ मोर पिच्छि की भस्म से, हिक्का होती बन्द ऐच्छिक धर्माचरण से, मिलता सहजानन्द ४१ गुटिका मृतसंजीवनी, हरती म्यादी ताव अमृतवाणी वीर की, भरती मन के घाव ४२ बलवर्धक माना गया, द्राक्षासव का पान महावीर के तीर्थ हैं, सुखवर्धक संस्थान ४३ अन्त प्रदर का कर रहा, यथा अशोकारिष्ट महावीर प्रभु को रहा, अन्त मोह का इष्ट ४४ यहां चन्दनासव यथा, हरता मूत्रविकार महावीर की वन्दना, करती बेड़ा पार ४५ च्यवनप्राश से हो रहा, जैसे कायाकल्प महावीर जिनकल्प का, कहते लाभ अनल्प ४६ कान्ति बढ़ाने के लिए, स्वर्णभस्म तैयार . शान्ति बढ़ाने के लिए, हुआ वीर अवतार ४७ वातगजांकुशरस यथा, हरता पक्षाघात महावीर करते नहीं, पक्षपात की बात ४८ लोकनाथरस से नहीं, रह सकता स्वरभेद महावीर प्रभु ने किया, भेदों का उच्छेद ४६ माना भास्करलवण को, अग्निमान्द्यहर चूर्ण प्रभु ने प्रवचन श्रवण को, माना सुखकर पूर्ण ५० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003813
Book TitleAyurved Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Pugaliya
PublisherUsha evam Mina
Publication Year1975
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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