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________________ लिये प्रेरणा दो । श्रुतोद्धार के ऐसे महान कार्य के अपूर्व लाभ को देखकर हमारे ट्रस्ट ने उक्त बहमूल्य प्रेरणा का हर्ष से स्वागत किया और ट्रस्ट के ज्ञाननिधि में से हिन्दी विवरणसहित मूल और टीकाग्रन्थ के मुद्रण प्रकाशन के लिये एक योजना बनायी गयी । उसका यह शुभ नतोजा है कि आज हिन्दी विवेचन से अलंकृत मूलसहित व्याख्याग्रन्थ के संपूर्ण प्रथम खण्ड का मुद्रण-प्रकाशन करने के लिये हम सौभाग्यवंत बने हैं। दार्शनिक चर्चा के क्षेत्र में सन्मतितर्कव्याख्या ग्रन्थ का अनूठा स्थान है । जैन दर्शन में इस ग्रन्थरत्न को दर्शन प्रभावक शास्त्रों में गिनती की गयी है। इतना ही नहीं किन्तु सम्यग्दर्शन की विशेष निर्मलता सम्पादनार्थ साधनरूप में इस शास्त्र के अध्ययन को अति आवश्यक माना गया है। अनेकान्तवादी जैनदर्शन की भिन्न भिन्न चर्चास्पद विषयों में क्या मान्यता है यह स्पष्ट जानने के लिये व्याख्याग्रन्थ का अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है। अधिकृत मुमुक्ष अध्येताओं को सम्यगज्ञान की प्राप्ति के लिये ऐसे ग्रन्थों को सुलभ बनाना इस काल में अत्यंत आवश्यक है। ऐसी आश्यकता को पूत्ति इस ग्रन्थरत्न के प्रकाशन द्वारा करने का हमें जो पुण्य अवसर मिला है वह निस्संदेह हमारे लिये असीम आनन्द का विषय है। सिद्धान्तमहोदधि कर्मसाहित्यनिष्णात सुविशालगच्छाधिपति निरंतरस्वाध्यायमग्न स्व. आचार्यदेव श्रीमद्विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराज साहेब के पट्टालंकार न्यायविशारद उग्रतपस्वी आचार्यदेव श्रीमद् विजय भवनमानुसूरीश्वरजी महाराज के हम अत्यन्त ऋणी हैं जिन्होंने बहुमूल्य प्रेरणा देकर इस ग्रन्थरत्न के प्रकाशन के लिये हमें प्रोत्साहित किया। तदुपरांत, इस ग्रन्थरत्न के प्रकाशन में पू. पंन्यास श्री राजेन्द्रविजयजी गणिवर्य की भी हमें पर्याप्त प्रेरणा एवं सहायता प्राप्त हुयी है। तथा, पू. मुनिश्री जयसुन्दरविजयजी महाराजने पूज्यपाद आचार्यभगवंग के आदेशानुसार प्रथम खंड के हिन्दी विवेचन का निर्माण किया, तथा हिन्दी विवेचन सहित मूल-व्याख्याग्रन्थ (प्रथम खण्ड) के सम्पादन का भी कार्य श्रुतभक्ति के शुभभाव से किया है। हमारे पर इन सब महात्माओं के अगणित उपकार हैं जिन को हम कभी बिसर नहीं सकेंगे। गौतम आर्ट प्रिन्टर्स, ब्यावर (राजस्थान) के व्यवस्थापक श्री फतहचन्दजी जैन को धन्यवाद देना हमारा कर्तव्य है। दिलचश्पी के साथ धार्मिक ग्रन्थ के मुद्रण में उन्होंने भावपूर्वक उत्साह दिखाया है यह अनुमोदनीय है। साक्षात् या परम्परया जिन सज्जनों की ओर से इस ग्रन्थरत्न के मुद्रण एवं प्रकाशनादि में हमें प्रेरणा-आशीर्वाद एवं सहायता प्राप्त हुयी है उन सभी के प्रति हम कृतज्ञताभाव धारण करते हैं । द्वितीयादि खंडो के प्रकाशन की हमारी भावना अभंग है । आशा है कुछ ही वर्षों में हम उनके लिये भो सफल होंगे। अधिकृत मुमुक्षुवर्ग ऐसे उत्तमग्रन्थरत्न के स्वाध्याय द्वारा जैन शासन की प्रभावना करके आत्मश्रेय. को प्राप्त करें यही एक शुभेच्छा। -शेठ मोतीशा लालबाग ट्रस्ट के ट्रस्टीगण एवं लालबाग उपाश्रय आराधक जैन संघ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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