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सम्मतिप्रकरण-काण्ड १
[ (१) उत्पत्ती परतः प्रामाण्यस्थापने उत्तरपक्षः ] अत्र प्रतिविधीयते यत्तावदुक्तम् 'अर्थतथाभावप्रकाशको ज्ञातृव्यापारः प्रमाणम्'-[पृ०४ पं०] तदयुक्तम् , पराभ्युपगतज्ञातृव्यापारस्य प्रमाणत्वेन निषेत्स्यमानत्वात । यदप्यन्यदभ्यधायि तस्य यथार्थप्रकाशकत्वं प्रामाण्यम् , तच्चोत्पत्तौ स्वतः, विज्ञानकारणचक्षुरादिव्यतिरिक्तगुणानपेक्षत्वात्'-[पृ० ४ ] तत्र प्रामाण्यस्योत्पत्तिरविद्यमानस्यात्मलाभः, सा चेन्निर्हेतुका "देश-काल-स्वभावनियमो न स्यात्" इत्यन्यत्र प्रतिपादितम् । किंच, गुणवच्चक्षुरादिसद्भावे सति यथावस्थितार्थप्रतिपत्तिष्टा, तदभावे न दृष्टा इति तद्धेतुका व्यवस्थाप्यते, अन्वय-व्यतिरेकनिबन्धनत्वादन्यत्रापि हेतुफलभावस्य, अन्यथा दोषवच्चक्षुराद्यन्वयव्यतिरेकानुविधायिनी मिथ्याप्रतिपत्तिरपि स्वतः स्यात् । तथाभ्युपगमे "वस्तुत्वाद द्विविधस्याऽत्र संभवो दुष्ट कारणात्" [ श्लो० वा० सू० २ श्लो० ५४ ] इति वचो व्याहतमनुषज्येत ।
'जिनानां शासनम्' अर्थात् 'जिनों के द्वारा स्थापित किया गया शासन' ऐसा कहा वह युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि 'जिन' जैसी किसी व्यक्ति का सद्भाव यानी सत्ता ही नहीं है वे असत् हैं, इसलिये जिनों के द्वारा रचित कोई शासन है यह बात संगत नहीं हो सकती। [ तात्पर्य, प्रमाणभूत आगम शास्त्रों का कोई प्रवक्ता नहीं होता, और प्रमाणभूत आगम केवल वेद ही हैं। ] यदि संगत हो तो भी शासन में पर की अपेक्षा प्रामाण्य नहीं हो सकता क्योंकि परतः प्रामाण्य का विस्तार से निषेध किया जा चुका है। [ स्वतः प्रामाण्यवाद पूर्वपक्ष समाप्त ]
[ (१) प्रामाण्य परतः उत्पन्न होता है- उत्तरपक्ष प्रारंभ ] इस विषय में अब प्रतिकार किया जाता है-आपने जो कहा कि 'ज्ञाता का अर्थ के यथास्थित स्वरूप का प्रकाशक व्यापार प्रमाण होता है' यह युक्त नहीं है, क्योंकि पर पक्षियों ने जो ज्ञाता के पापार को प्रमाणरूप माना है उसका निषेध स्वतोभाव के खण्डन के बाद किया जाने वाला है।
इसके अतिरिक्त, रवनः प्रामाण्यवादी ने जो कहा कि 'अर्थ के यथास्थितस्वरूप का प्रकाशन वह प्रामाण्य है और वह उत्पत्ति में स्वरः है, क्योंकि चक्षु आदि इन्द्रिय से भिन्न किसी गुण की अपेक्षा नहीं करता, इसलिये प्रामाण्य स्वत: उत्पन्न होने वाला कहा जाता है।' (तत्र प्रमाप्यस्यो०....) वहाँ यह सोचना जरूरी है कि प्रामाण्य की पत्ति' में उत्पत्ति क्या है ? 'जो पहले विद्यमान नहीं है उसका अस्तित्व में आना' यही उत्पत्ति है । अगर यह उत्पत्ति निर्हेतुक यानी विना कारणसामग्री के हो जाती तब तो देशकालस्वभाव का नियम नहीं बन सकता। अर्थात कार्योत्पत्ति अमुक ही देश में, अमुक ही काल में व अमुक ही स्वभाववाली नहीं बन सकती। उदाहरणार्थ, मिट्टी का पिंड घटस्वरूप बन जाने पर घट का अस्तित्व दिखाई देता है तो घट की उत्पत्ति कही जाती है। अब यह नियत घट को उत्पत्ति यदि विना कारण हो तब उसके उपादान भूत मिट्रीमय पिड देश में ही उत्पन्न होना, अमुक ही दिन में उत्पन्न होना, अमुक ही दिन में जलाहरणादि स्वभावयुक्त उत्पन्न होना-ऐसा नियत भाव नहीं बन सकता- इस बात का उपपादन अन्य स्थल में किया गया है।
तात्पर्य यह है कि कारणों से अजन्य ऐसे परमाणु आकाश आदि विद्यमान नित्य पदार्थ किसी एक हो (उपादान) देश व एक ही काल में नहीं रहता है। एवं उनका स्वभाव भी नियत नहीं होता है. यानी कारणजन्य पदार्थों के समान तत्तत्कारणाधीन तत्तत्स्वभाव वाला नहीं होता है। यदि प्रामाण्य
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