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________________ प्रथमखण्ड-का० १-मुक्तिस्वरूपमीमांसा ६४३ समानजातीयत्वम् एकसन्तानत्वं वा हेतुर्व्यभिचारात' इत्यादि, तदपि प्रतिविहितमेव 'तस्माद्यस्यैव संस्कारं नियमेनाऽनुवर्तते' इत्यादिना । तेन 'मरणशरीरज्ञानस्य गर्भशरीरज्ञानहेतुत्वे सन्तानान्तरेऽपि ज्ञानजनकत्वप्रसंगः, नियमहेतोरभावात्' इत्येतदपि स्वप्नायितमिव लक्ष्यते, नियमहेतोस्तत्संस्कारानुवर्तनस्य प्रदशितत्वात्। यच्च 'सुषुप्तावस्थायां विज्ञानसद्भावे जाग्रदवस्थातो न विशेषः स्यात्' इत्यादि, तदपि प्रतिविहितम् 'यस्य यावती मात्रा' इत्यादिना । तथाहि-मिद्धादिसामग्री विशेषाद् विशिष्टं सुषुप्ताद्यवस्थायां गच्छत्तणस्पर्शज्ञानतुल्यं बाह्याध्यात्मिकपदार्थानेकधर्मग्रहणविमुखं ज्ञानमस्ति, अन्यथा जाग्रत् प्रबुद्धज्ञानप्रवाहयोरप्यभावप्रसक्तिरिति प्रतिपादितत्वात परिणतिसमर्थनेन । यथा चाश्वविकल्पनकाले प्रवाहेणोपजायमानमपि गोदर्शनं जानान्तरवेद्यमपि भवदभिप्रायेणानुपलक्षितमास्ते- अन्यथा अश्वविकल्पप्रतिसंहारावस्थायाम् 'इयत्कालं यावन्मया गौष्टो न चोपलक्षितः' इति ज्ञानानुत्पत्तिप्रसक्तः प्रसिद्धव्यवहारोच्छेदः स्याव-तथा सुषुप्तावस्थायां स्वसंविदितज्ञानवाटिनोऽप्यनुपलक्षितं ज्ञानं भविष्यतीति न तदवस्थायां विज्ञानाऽसत्त्वात् तत्सन्तत्युच्छेदः । न च युगपज्ज्ञानानुत्पत्तेश्वविकल्पकाले ज्ञानान्तरवे चुका है, क्योंकि अचेतन से यदि चैतन्य की उत्पत्ति मानेगे तो परलोकमान्यता का उच्छेद हो जाने से नास्तिकमत की आपत्ति होगी। परलोक की सिद्धि पहले की गयी है। यह जो विकल्प किया था-ज्ञान को ही अन्य ज्ञान का कारण मानने में क्या हेत है-पूर्वकालभावित्व, समानजातीयता या एकसन्ता. नता ? तीनों में व्यभिचार होने से ज्ञान हो अन्य ज्ञान का हेतु नहीं है-इत्यादि, उसका भी प्रतिकार "जो जिसके संस्कार का नियमत: अनुसरण करता है वह तत्समाश्रित है'' इस कारिकार्थ से कर दिया गया है। इसी कारण से, आप का यह कथन-मरणशरीरवर्ती ज्ञान को अग्रिम जन्म के गर्भकालीनशरीरान्तर्गतज्ञान का हेतु मानेंगे तो फिर चैत्रसन्तानबत्ति ज्ञान से मैत्रसन्तान में ज्ञानोत्पत्ति की आपत्ति होगी क्योंकि कारण कार्य के सामानाधिकरण्यादि नियामक हेतु का तो अभाव है-यह कथन भी स्वप्नोक्तितुल्य लगता है, क्योंकि संस्कार के अनुवर्तन स्वरूप नियामक हेतु का सद्भाव तो हमने दिखा दिया है। [ सुषुप्ति में ज्ञान के सद्भाव की सिद्धि ] यह जो कहा था-सुषुप्तावस्था में विज्ञान की सत्ता मानने पर जागृतिदशा से कुछ भेद नहीं रहेगा-....इत्यादि,-इस का भी-जिस की जितनी मात्रा....इत्यादि [ १०.२७ 1 से परिहार हो चका है। जैसे देखिये-निद्रावस्था में एक ऐसा ज्ञान होता है जो बाह्याभ्यन्तर पदार्थों के अनेकधर्मों के ग्रहण से विमुख होता है, जो मिद्धता (=दर्शनावरणकर्म के उदय से प्रयुक्त जडता) आदि सामग्री विशेष से विशिष्ट यानी उत्पन्न होता है, जैसे कि चलते समय पैर के नीचे आनेवाले तृण का स्पर्शज्ञान । यदि इस ज्ञान को नहीं मानेंगे तो जागृतिदशा के अन्तिमज्ञान में अर्थक्रियाकारित्वरूप सत्त्व का अभाव प्रसक्त होने से संपूर्ण जागृतिदशाकालीन ज्ञानप्रवाह का और सुषुप्ति उत्तरकालीन ज्ञानप्रवाह का अभाव प्रसक्त होगा। परिणामवाद के समर्थन में उक्त तथ्य का समर्थन किया जा चुका है। सुषुप्ति में अनुपलक्षित भी ज्ञान होता है उसके लिये बौद्धमतमान्य गोदर्शन का दृष्टान्त भी है अश्व के विकल्पकाल में प्रवाह से उत्पन्न होने वाला गोदर्शन उपलक्षित नहीं होता है किन्तु आपके मतानुसार वह ज्ञानान्तरवेद्य होता है-यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो अश्वविकल्प के प्रवाह का अन्त हो जाने पर जो यह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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