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________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ निराश्रवचित्तसन्तत्युत्पत्तिलक्षणा त्वभ्युपगम्यत एव, केवलं सा चित्तसन्ततिः सान्वया युक्ता, बद्धो हि मुच्यते नाऽबद्धः । न च निरन्वये चित्तसन्ताने बद्धस्य मुक्तिः सम्भवति, तत्र ह्यन्यो बद्धोऽन्यश्च मुच्यते । 'सन्तानक्याद बद्धस्यैव मुक्तिरत्रापी'ति चेत् ? यदि सन्तानार्थः परमार्थसंस्तदाऽऽत्मैव सन्तानशब्देनोक्तः स्यात् , अथ संवृतिसन् तदैकस्य परमार्थसतोऽसत्त्वादन्यो बद्धोऽन्यश्च मुच्यत इति बद्धस्य मुक्त्यर्थं न प्रवृत्ति: स्यात् । अथाऽत्यन्तनानात्वेऽपि दृढरूपतया क्षणानामेकत्वाध्यवसायात 'बद्धमात्मानं मोचयिष्यामि' इत्यभिसन्धानवतः प्रवृत्तेयिं दोष:, तहि न नैरात्म्यदर्शन मिति कुतस्तनिबन्धना मुक्तिः ? । अथाऽस्ति नैरात्म्यदर्शनं शास्त्रसंस्कारजम् , न त कत्वाध्यवसायोऽस्खलद्रप इति कुतो बद्धस्य मुक्त्यर्थं प्रवृत्तिः स्यात् ? तथा च-"मिथ्याध्यारोपहानार्थ यत्नोऽसत्यपि मोक्तरि"इत्येतत प्लवते । तस्मादसति विज्ञानक्षणान्वयिनि जीवे बन्ध मोक्षयोरतदर्थ वा प्रवृत्तेरनुपपत्तेः सान्वया चित्तसन्ततिरभ्युपगन्तव्या। की (यानी विजातीय कार्य की) उत्पत्ति होने पर भी सजातीय रूप कार्य की उत्पत्ति न हो । तब रस से समानकालीन रूप का अनुमान करेंगे तो वह भ्रमरूप हो जायेगा । यदि ऐसा कहें कि रूप और रस दोनों की उत्पत्ति समानसामग्री से होने का नियम होने से रूप को सजातीय-विजातीय उभय कार्यजनक माने विना नहीं चल सकता-तो फिर प्रस्तुत में भी अन्तिमज्ञानक्षण में उभयकार्यजनकता क्यों नहीं होगी जब कि योगीज्ञान और अन्तिमज्ञानक्षण दोनों समान कारणसामग्री से जन्य है ?! यह प्रश्न है कि अन्तिमज्ञानक्षण उत्तरज्ञान की उत्पत्ति में अनुपयोगी है तो योगीज्ञान की उत्पत्ति में उपयोगी कैसे होगा ? यदि बौद्धवादी को यह मान्य हो कि एक ओर अनुपयोगी वस्तु दूसरी ओर उपयोगी बन सकती है, तब तो ज्ञान का अन्यज्ञान से प्रत्यक्ष माननेवाले नैयायिक के मत में ज्ञान को स्वविषयकज्ञानोत्पादन में असमर्थ मानने पर भी अर्थविषयकज्ञान के उत्पादन में समर्थ माना जाता है उसमें क्या दोष रहेगा? ज्ञान स्वविषयकज्ञान के उत्पादन में भले ही असमर्थ हो, अर्थ का ज्ञान करा देगा, फिर अर्थचिन्ता का उच्छेद हो जाने की आपत्ति तो नहीं रहेगी। यदि ऐसा कहें कि-अन्तिमज्ञानक्षण से अपने सन्तान में सजातीयज्ञान की उत्पत्ति को जैसे हम नहीं मानते वैसे भिन्नसन्तानवर्ती कार्य के उत्पादन का सामर्थ्य भी नहीं मानते हैं तो यह नितान्त गलत है क्योंकि तब तो अंत्यक्षण में किसी भी प्रकार का अर्थक्रियासामर्थ्य न रहने से वह अत्यन्त असत् मानना होगा। यदि अर्थक्रिया के विरह में भी आप उसको वस्तुभूत मानेंगे तो अक्षणिक पदार्थ में भी वस्तुत्व मानना होगा, भले ही उसमें अर्थक्रियासामर्थ्य न रहे ! फलतः आपका क्षणिकत्वसाधक सत्व हेतु अक्षणिक वस्तु में ही साध्यद्रोही बन जायेगा। सारांश, जैसे विशेषगुणशून्यात्म स्वरूप मुक्ति की मान्यता असंगत है वैसे साश्रवचित्तसन्तान के निरोधस्वरूप मुक्ति को मान्यता भी असंगत है। [चित्तसन्तान में अन्वयी आत्मा की उपपत्ति ] यदि साश्रवचित्तनिरोधपूर्वक निराश्रवचित्तसन्तान की उत्पत्ति को मुक्ति कहें तो उसे हम मानते ही हैं, सिर्फ उस चित्तसन्तान को सान्वय यानी एक अन्वयी से अनुविद्ध मानना आवश्यक है। कारण, बन्धवाले की मुक्ति होती है अबद्ध की नहीं। तात्पर्य यह है कि चित्तसन्तान को यदि सान्वय न मानकर निरन्वय मानेंगे तो 'बन्धवाले की ही मुक्ति होती है' यह सिद्धान्त नहीं घटेगा, क्योंकि निरन्वय चित्तसन्तानपक्ष में पूर्वकालीन क्षण को बन्ध होगा तो मुक्ति उत्तरक्षण को होगी-इस प्रकार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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