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सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड १
विरुद्धश्वायं हेतुः, शब्द-बुद्धि- प्रदीपादिष्वप्यत्यन्तानुच्छेदवत्स्वेव सन्तानत्वस्य भावात् । न ह्यकान्त नित्येष्विवाऽनित्येष्वप्यर्थक्रियाकारित्वलक्षणं सत्त्वं सम्भवतीति प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । न च प्रदीपादीनामुत्तरः परिणामो न प्रत्यक्षः इत्येतावता 'ते तथा न सन्ति' इति व्यवस्थापयितुं शक्यम्, अन्यथा परमाणूनामपि पारिमाण्डल्यगुणाधारतया प्रत्यक्षतोऽप्रतिपत्तेस्तद्रूपतयाऽसत्त्वप्रसंग: । अथ तेषां तद्रूपताऽनुमानात् प्रतिपत्तेर्नायं दोषः । ननु सानुमानात् प्रतिपत्तिः प्रकृतेऽपि तुल्या । यथा हि स्थूल कार्यप्रतिपत्तिस्तदपर सूक्ष्मकारणमन्तरेणाऽसम्भविनी परमाणुसत्तामवबोधयति तथा मध्यस्थितिदर्शनं पूर्वापरकोटस्थितिमन्तरेणासम्भवि तां साधयतीति प्रतिपादयिष्यते ।
क्योंकि प्रदीपादि में प्रदीपक्षणपरम्परा रहती है । तदुपरांत, यहाँ नैयायिक को अपनी मान्यता के साथ विरोध भी आयेगा । कारण, नैयायिक मत में एकपरम्परागत सकल बुद्धिक्षणों का बुद्धिक्षणरूप उपादान नहीं माना जाता । तात्पर्य, जागृति के आद्यबुद्धिक्षण का पूर्व बुद्धिक्षण उपादान नहीं होता है और अन्तिमबुद्धिक्षण का कोई उत्तरबुद्धिक्षणरूप उपादेय नहीं होता है । यदि नैयायिक बुद्धि क्षणों में उपादान- उपादेयभाव आँख मूँद कर मान लेगा तो मुक्ति अवस्था में भी पूर्व पूर्व बुद्धिक्षणरूप उपादान से उत्तरोत्तर बुद्धिक्षणरूप उपादेय के उत्पाद का सम्भव हो जाने से 'बुद्धिसन्तान के अत्यन्तोच्छेदरूप' साध्य का ही असम्भव हो जायेगा । क्योंकि अखंडित पूर्वापर बुद्धिक्षणपरम्परारूप हेतु पक्ष में सद्भाव होने पर अत्यन्तोच्छेदरूप साध्य का बाधित होना सहज है ।
[ पूर्वापरभावापनक्षणप्रवाहरूप सन्तानत्व हेतु में दोष ]
यदि कहें कि - उपादान - उपादेय भूत क्षणपरम्परा को हम हेतु नहीं करेंगे किन्तु पूर्वापरभावापन्न समानजातीय क्षणपरम्परारूप सन्तानत्व को ही हेतु करेंगे । अतः उपादानोपादेयभाव मूलक जो दोष होता है वह नहीं होगा तो यह कुछ ठीक है किन्तु पहला जो असाधारण अनैकान्तिक दोष है वह तो ज्यों का त्यों ही रहेगा । कारण, बुद्धि आदि क्षणपरम्परा बुद्धि आदि से अन्यत्र प्रदीप आदि में अनुवर्तमान नहीं है। कारण, नैयायिक मत में जातिरूप पदार्थ का अन्य व्यक्तिओं में अनुगम हो सकता है किन्तु व्यक्तिरूप पदार्थ का अन्य व्यक्तिओं में अनुगम सम्भव ही नहीं है। यदि व्यक्ति का भी अन्य व्यक्तिओं में अनुगम मानेंगे तो हमने पहले जो जाति के ऊपर दोषारोपण किया है वह यहाँ ज्यों का त्यों लागु हो जायेगा । तथा, हेतु में अनैकान्तिक दोष का भी सम्भव है, वह इस प्रकार :परमाणु के पाकजरूपादि में पूर्वापरसमानजातीयरूपादिक्षणपरम्परारूप सन्तानत्व हेतु रहने पर भी उस परम्परा का अत्यन्त उच्छेद नहीं होता है । अनैकान्तिक दोष यहाँ दूसरे प्रकार से भी लागू होता है, वह इस प्रकार :- सन्तानत्व भले हो, अत्यन्तोच्छेद का अभाव भी रहे, तो क्या बाध है - ऐसी विपरोत शंका करने पर कोई उसका बाधक प्रमाण नहीं है अतः बुद्धिआदि का सन्तान ही विपक्षरूप में संदिग्ध हो गया और हेतु उसमें रहता है अत: संदिग्धविपक्षव्यावृत्ति रूप अनैकान्तिक दोष प्रकट हुआ । विपक्ष में हेतु के अदर्शनमात्र को उक्त शंका के बाधक प्रमाणरूप में मान लेने की बात का तो पहले ही प्रतिकार हो चुका है ।
[ सन्तानत्व हेतु में विरोध दोष ]
बुद्धि आदि में अत्यन्तोच्छेद की सिद्धि के लिये प्रयुक्त सन्तानत्व हेतु में पूर्वोक्त दोषों के उपरांत विरोध दोष भी है । कारण, सन्तानत्व उन्हीं में रहता है जिनका ( किंचिद् अंश से उच्छेद
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