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________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ संयोगप्रतिपत्तावभ्युपगमबाधा। समवायानुमाने सम्बन्धव्यतिरेकः, न चान्यस्य सम्बन्धे सत्यन्यस्य गमकत्वम् , अतिप्रसंगात् । न हि देवदत्तेन्द्रियघटसम्बन्धे यज्ञदत्तेन्द्रियं रूपादिकमर्थं करणत्वात् प्रकाशयद हष्टम् । तन्न समवायः कस्यचित प्रमाणस्य गोचरः। न च तस्य समवायिभ्यामसम्बद्धस्य सम्बन्धरूपता। न च तत्सम्बन्धनिमित्तोऽपरः समवायोऽ. भ्युपगम्यते, अभ्युपगमे वाऽनवस्थाप्रसंगः। विशेषण-विशेष्यभावस्यापि तत्सम्बन्धनिमित्तस्य सम्बन्धाभ्युपगमेऽनवस्थादिदूषणं समानम् । न चाऽसम्बद्धस्याऽपि तस्य सम्बन्धरूपत्वादपरपदार्थसम्बन्धकत्वमिति वाच्यम् , विहितोत्तरत्वात् । न च समवायस्यान्यस्य वा एकान्तनित्यस्य कार्यजनकत्वं सम्भवति, नित्ये क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधस्य प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । न च तदभावे पदार्थानां सत्त्वम् . सत्तासम्बन्धित्वेन तस्य निषिद्धत्वान्निषेत्स्यमानस्वाच्च । तदेवं समवायस्याभावात् सन्तानत्वं बुद्धयादिसन्तानेषु न वृत्तिमत् सिद्धमिति सन्तानत्वलक्षणे हेतुः कथं नाऽसिद्धः? अनम यह वस्त्र और यह समवाय' इस प्रकार परस्पर पृथक् रूप से बाह्यरूप में ग्राह्यआकारवाला त्रिपुटी का भान नहीं होता क्योंकि वैसा अनुभव ही किसी को नहीं होता है। __ अनुमानात्मक प्रतीति में उक्त त्रिपुटी का भान मानने की बात भी अयुक्त है, क्योंकि त्रिपुटी का प्रत्यक्ष न होने पर प्रत्यक्षमूलक अनुमान की संभावना ही नहीं रहती। यदि कहें कि-प्रत्यक्षमूलक न भले न होता हो किन्तु 'सामान्यतोदृष्ट' अनुमान की समवाय के ग्रहण में प्रवृत्ति शक्य है-तो यह भो अयुक्त है क्योंकि समवायजन्य कोई ऐसा कार्य उपलब्ध नहीं है जिस के बल से अप्रत्यक्ष भी समवाय की सिद्धि हो सके। [इहबुद्धि से समवायसिद्धि अशक्य ] यदि यह कहा जाय कि-'इह= यहाँ' इस आकार की बुद्धि ही समवाय की साधक है, जैसे देखिये-'यहां तन्तुओं में वस्त्र है, ऐसो प्रतोति सम्बन्धनिमित्तक है क्योंकि वह बाधरहित 'यहाँ' ऐसी प्रतीतिरूप है जैसे कि 'यहाँ कुण्ड में दहीं है' ऐसी बृद्धि (सयोग ) सम्बन्धमूलक होती है। तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस अनुमान में जो प्रतीत होता है उसके ऊपर एक भो विकल्प घटता नहीं है, जैसे देखिये-a निमित्तमात्र हा यहाँ प्रतीत होता है या b सम्बन्ध हो प्रतीत होता है ? a निमित्तमात्र की प्रतीति तो हम भी मानते हैं अतः पहले विकल्प में सिद्धसाधन दोष हुआ। b यदि सम्बन्ध प्रतीत होता है तो वह संयोग या समवाय में से कौनसा है ? संयोग को प्रतीति मानगे तो अपनी के साथ विरोध होगा क्योंकि आप को वहाँ समवाय की प्रतीति इष्ट है। यदि समवायं को प्रतीति होने का मानेंगे तो सम्बन्ध की प्रतीति का अभाव प्रसक्त होगा। नियम है कि जिस का किसी के साथ सम्बन्ध हो वही उसका बोधक हो सकता है अन्य कोई नहीं। उदा० देवदत्त की इन्द्रिय का घट के साथ सम्बन्ध होने पर यज्ञदत्त की इन्द्रिय सिर्फ करण होने मात्र से ही घटरूपादि अर्थ का प्रकाश करती हुयी नहीं दिखती है। प्रस्तुत में उक्त अनुमान (हेतु) को यदि समवाय के साथ सम्बन्ध है तो वह समवाय का ही बोधक होगा, सम्बन्ध का नहीं, क्योंकि सम्बन्ध के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है । सारांश, समवाय किसी भी प्रमाण का विषय नहीं है। [समवाय के अभाव में सन्तानत्व हेतु की असिद्धि ] तथा, समवाय जब तक दो समवायि से असम्बद्ध रहेगा तब तक वह स्वयं सम्बन्धरूप नहीं हो सकता। दो समवायी के साथ उसे सम्बद्ध मानने के लिये सम्बन्धकारक एक नया सम्बन्ध मानना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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