SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 655
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६१८ सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड १ न्धित्वेन नीलस्वरूपवत् समवायत्वानुपपत्तेः । नापि तदनुगतैकस्वभाव:, सामान्यवत् तत्समवायत्वायोगात् नित्यस्य सतोऽनेकत्र वृत्तेः सामान्यस्य परेण समवायत्वानभ्युपगमात् । न च समवायस्वरूपस्यापि ग्राहकत्वेन निविकल्पकं सविकल्पकं वाऽध्यक्षं प्रवर्त्तते, किमुत तस्यानेक समवाय्यनुगतैकतद्विशेषरूपस्य तदग्रहणे तदनुगतैकरूपस्यापि श्रप्रतिभासनादिति सामान्यप्रतिषेधप्रस्तावे प्रतिपादितत्वाद । नापि तत्र प्रत्यक्षाऽप्रवृत्तौ तत्पूर्वकस्यानुमानस्यापि प्रवृत्तिः । अथ सम्बन्धत्वेनासावध्यवसीयते तदयुक्तम्, यत: A कि 'सम्बन्धः' इति बुद्धयाऽध्यवसीयते, B आहोस्विद् 'इह' इति बुद्धया, Cउत 'समवाय ' इति प्रतीत्या ? a A तद् यदि सम्बन्धबुद्ध्या तदा वक्तव्यम् - कोऽयं सम्बन्ध: ? कि सम्बन्धत्वजातियुक्तः, b आहोस्विदने कोपादानजनितः, c अनेकाश्रितो वा, d सम्बन्धबुद्धिविषयो वा सम्बन्धबुद्धयुत्पादको वा ? a तद् यदि सम्बन्धत्वजातियुक्तः स न युक्तः समवायाऽसम्बन्धत्व प्रसंगात् । b अथाने कोपादानजनितस्तदा घटादेरपि सम्बन्धत्वप्रसंग: । अथाने काश्रितस्तदा घटजात्यादौ सम्बन्धत्वप्रसगः । अथ सम्बद्धबुद्ध्युत्पादकस्तदा लोचनादेरपि सम्बन्धत्वप्रसक्ति: । d श्रथ सम्बद्धबुद्धयवसेयस्तदा घटादिष्वपि सम्बन्धशब्दव्युत्पादने सम्बन्धज्ञानविषयत्वे सम्बन्धत्वप्रसंगः, तथा सम्बन्धेतरयोरेकज्ञानविषयत्वे इतरस्प सम्बन्धरूपताप्रसक्तिः । अथ सम्बन्धाकारः सम्बन्धः, संयोगाभेदप्रसंगः, अत्रान्तराकारभेदश्व न भेदकः, तस्याऽप्रसिद्धेः । b व्यावृत्तस्वभाव । समवाय को आप कैसा मानेंगे ? a सकल समवायी पदार्थों में अनुगत एक स्वभाववाला मानगे या b उन से व्यावृत्तस्वभाववाला मानेगे ? b उनसे व्यावृत्तस्वभाववाला मान नहीं सकते क्योंकि जो सकल पदार्थों से व्यावृत्तस्वभाववाला होगा वह अन्य किसी का भी सम्बन्धी न होने से समवायरूप ही नहीं हो सकता, जैसे नील का स्वरूप नीलेतर सभी पदार्थों से व्यावृत्त होने से समवायरूप नहीं होता । a सभी पदार्थों में अनुगत एक स्वभाव वाला भी उसे नहीं मान सकते क्योंकि अनुगतस्वभाववाली वस्तु समवायरूप नहीं घट सकती जैसे जाति अनुगतस्वभाववाली होती है तो उस में समवायत्व नहीं रहता है । तथा नित्य और एक होने पर जो अनेक में रहता है वह तो नैयायिक मत में जातिरूप माना जाता है, समवायरूप नहीं । उपरांत, निर्विकल्प और सविकल्प कोई भी प्रत्यक्ष समवाय के स्वरूप को भी ग्रहण करके जब प्रवृत्त होता नहीं है, तब उसके अनेक समवायि में अनुगत एक स्वभावरूप विशेषता को तो ग्रहण करने की बात ही कहाँ ? सामान्यतत्त्व के निराकरण के प्रसंग में यह कहा ही है कि जिसके स्वरूप का भी ग्रहण नहीं होता उसके अनुगत एक स्वभाव का प्रतिभास नहीं हो सकता । जब प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति समवाय के विषय में नहीं है तो प्रत्यक्षमूलक अनुमान की भी प्रवृत्ति नहीं हो सकती । [ संबन्धरूप से समवाय का अध्यवसाय विकल्पग्रस्त ] यदि ऐसा कहें कि - समवाय का सम्बन्धरूप से अध्यवसाय ( = भान) होता है अत: वह असिद्ध नहीं है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यहाँ तीन विकल्प हैं - A क्या " सम्बन्ध " - इस आकार की बुद्धि से उसका भान होता है B या 'इह = यहाँ ( वह है )' ऐसी बुद्धि से भान होता है C या 'समवाय' ऐसी प्रतीति से उसका भान होता है । A अगर कहें कि -'सम्बन्ध' ऐसी बुद्धि से उसका भान होता है तो यहाँ पाँच प्रश्न हैं - यह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy