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________________ प्रथमखण्ड-का० १-नित्यसुखसिद्धिवादे पूर्व० ६०७ अथ वदेव-अभिलाषातिरेके तन्निवृत्तौ सुखातिरेकाभिमानोऽन्यत्रान्यथेति । तदप्यसाम्प्रतम् , यतोऽभिलाषातिरेकात प्रयस्यन्तं प्राप्तोऽर्थो न तथा प्रोणयति यथाऽप्राथितो विना प्रयासादुपनतः । एवमेव च लोकव्यवहारः-यत्नशतावाप्तेऽर्थे क्ले शप्राप्तोऽयमिति न तेन तथा सुखिनो भवन्ति यथाऽनाशंसितप्राप्तेन । तन्न दुःखाभावमात्रं सुखं किन्तु तद्व्यतिरेकेण स्वरूपतः सुखमस्तीति । तदसमीचीनम्-न हि अस्माकं दुःखामाव एव सुखम् , तया च भाष्यकृता तत्र तत्राभिहितम्"न सर्वलोकसाक्षिकं सुखं प्रत्याख्यातु शक्यम्" [ ]। तथाऽन्यत्राप्युक्तम्-"न प्रत्यात्मवेदनीयस्य सुखस्य प्रतीतेः प्रत्याख्यानम्" [ ]। एवं चानभ्युपगतस्य पक्षस्योप (1)लम्भः, प्रकृते तु सुखे प्रतिपाद्यते दुःखाभावमात्रे सुखशब्दो न तु सुखे एव, तस्य प्रमाणतोऽनुपपत्तेः। तथा च मुक्तस्य नित्यसुखाभिव्यक्तौ प्रत्यक्षाऽनुमानयोनिषेधे प्रागममात्रमवशिष्यते तस्य च गौणत्वेनाप्युपपत्तेर्न मुख्यस्य सुखस्य सम्भवः ।। नित्यसुखाभ्युपगमे च विकल्पद्वयम्-A कि तद् अात्मस्वरूपं स्वप्रकाशम् , B उतस्वित् तद्व्यतिरिक्त प्रमाणान्तरप्रमेयम् ? A पूर्वस्मिन् विकल्पे प्रात्मस्वरूपवत् स्वप्रकाशसुखसंवित्तिः सर्वदा भवेत, ततश्च बद्ध-मुक्तयोरविशेषः। तत्रैतत् स्यात-अनाद्यविद्याच्छादितत्वात स्वप्रकाशानन्दसंवि संसारिणः, यदा तु यत्नादनादेरविद्यातत्त्वस्थापगमस्तदाच्छद काभावात स्वप्रकाशानन्दसंवेदनम्' ।एतदपेशलम् पाच्छाद्यते ह्यप्रकाशस्वभावम् यनु स्वप्रकाशरूपं तत् कथमन्येनाच्छाद्येत ? तदुपरांत, विषयभोग के विना भी कामना को निवृत्ति प्रसिद्ध है जैसे कि विषयों के दोषों का चिन्तन करने से । आप तो कामना की निवृत्ति को ही सुख मानते हैं अत: आपके मत से तो विषयदोष चिन्तन से भी इच्छानिवृत्तिरूप सुख का अनुभव प्रसक्त होगा । तथा दो व्यक्ति को इष्ट वस्तु की प्राप्ति तुल्य रूप से होने पर, दोनों को जो तरतमभाव से सुखानुभव होता है वह नहीं होगा क्योंकि कामना की निवृत्ति तो दोनों को समान है । [आभलापतात्रता से तीव्रसुखाभिमान की शका गलत ] ___ यदि कहें कि-"सुख में जो न्यूनाधिकता का अनुभव होता है वह अभिमानमात्र है। तात्पर्य यह है कि जब विषयोपभोग की इच्छा तीव्र होती है और विषयभोग से उसकी निवृत्ति होती है तब सख (दुखाभाव) में अधिकता का अभिमान होता है और इच्छा मन्द रहने पर सुख में न्यूनता का अभिमान होता है । अत: वास्तव में न्यूनाधिकता के बल से सुख की दुःखाभाव से अतिरिक्त रूप में सिद्धि नहीं हो सकती।"-तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि तीव कामना से प्रयास करने के बाद जो अर्थप्राप्ति होती है उमसे इतना आह्लाद नहीं होता जितना इच्छा न होने पर भी अनायास अर्थप्राप्ति से होता है । लौकिक व्यवहार भी ऐसा ही है कि सैकड़ों यत्न करने पर अगर अर्थप्राप्ति होती है तो कहते हैं कि महा कष्ट से यह प्राप्त हुआ, अर्थात् वहां मनुष्य इतना सुखी नहीं होता जितना इच्छा के विना ही प्राप्त हो जाने पर होता है । [ मुक्तिसुखवादी का पूर्वपक्ष समाप्त ] [दुःखाभाव अर्थ में भी सुखशब्दप्रयोग होता है-नैयायिक उत्तर पक्ष ] मुक्तिसुखवादी का यह पूर्वपक्षवक्तव्य असंगत है। कारण हम सिर्फ दुःखाभाव को ही सुख नहीं मानते हैं किन्तु तदतिरिक्त सुख भी मानते हैं जैसे कि भाष्यकार ने ही भिन्न भिन्न स्थल में कहा हैसर्वलोक जहाँ साक्षि है वैसे सुख का निषेध शक्य नहीं। तथा ओर भी एक स्थान में कहा है-प्रत्येक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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