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प्रथमखण्ड का ० १ - नित्य सुखसिद्धिवादे पूर्व ०
स्याद्वं निमग्ने सुखमन्यत्र दुःखम् । अथ मतम् - यत् तदधें निमग्ने तद् दुःखाभावः सुखमन्यत्र दुःखम् इति, तर्हि नारकाणां सुखित्वप्रसंगः, क्वचित्ररके दुःखानुभवादन्यनरक सम्बन्धिदुःखाभावाच्च । तथा, श्रनेकेन्द्रियद्वारस्य दुःखस्य केनचिदिन्द्रियेण दुःखोत्पादेऽन्येनाऽजनने सुखित्वप्रसङ्गः । अपि च, प्रदुःखितस्यापि विशिष्टविषयोपभोगात सुखं दृष्टं तत्र कथं दुःखाभावः सुखम् ? यत्रापि दुःखसंवेदनपूर्वं यथा क्षुदुःखे भोजन प्राप्तौ तृप्तस्य तद्विनिवृत्तः, तत्राप्यन्नपानयोविशेषात् सुखविशेषो न भवेत्, दृश्यते च लौकिकानां तदर्थमन्त्रादिविशेषोपादानम्, अन्यथा येन केनचिदन्नमात्रेण च क्षुदुखनिवृत्तौ नान्नपानविशेषं लौकिका उपाददीरन् । सुखस्य च भावरूपत्वात् सातिशयत्वे तत्साधनविशेषो युज्यते, दु:खाभावस्य तु सर्वोपाख्याविरहलक्षणत्वात् किं साधनविशेषेण ?
रोप्येवमुपागमन् 'यदाऽपि पूर्व दुःखं नास्ति तदाप्यभिलाषस्य दु खस्वभावत्वात् तन्निबर्हणस्वभावं सुखम् ' तेऽपि न सम्यक् प्रतिपन्नाः, यतोऽनभिलाषस्य विषयविशेषसंवित्तौ न सुखिता स्यात्, दृश्यते तस्यामप्यवस्थायां रमणीयविषयसम्पर्के ह्लादोत्पत्तिः ।
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तत्रैतत् स्यात्-, “यत्रैवाभिलाषः स एव विषयोपभोगेन सुखी, नान्यः, तदभिलाषनिवृत्त्यैव विषयाः सुखयितारोऽन्यथा यदेकस्य सुखसाधनं तदविशेषेण सर्वेषां स्यात् । यदा तु कामनिवृत्या सुखित्वं तदा यस्यैवाभिलाषो यत्र विषये स एव तस्य सुखसाधनं नान्य:, अतश्च यदुक्तम् 'अकामस्यापि क्वचिद्विषयोपभोगे सुखित्वदर्शनास कामाख्यदुःखनिवृत्तिरेव सुखम् ' तदयुक्तम्, तत्राऽकामस्यापि विशिष्टविषयोपभोगात् कामाभिव्यक्तौ तन्निवृत्तेरेव सुखत्वादिति ।" - एतदप्ययुक्तम, यतो नावश्यं विषयोपभोगोऽभिलाषनिबर्हणः । यथोक्तम्- | महाभा० आ० प० श्र० ७६ श्लो० १२ ]
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवमेव भूय एवाभिवर्धते ।।
और दुःखाभाव का कभी एक साथ अनुभव नहीं हो सकता ) । उदा० ग्रीष्मऋतु में सन्ताप से उत्तप्त पुरुष किसी शितल जलकुंड का अवगाहन करते हैं तब जल में निमग्न अर्ध देह में तो सुखानुभव होता है और बहार रहे अर्ध देह में दुःखानुभव होता है । यदि ऐसा मानें कि जलनिमग्न अर्धदेह में जो सुख है वह दुःखाभावरूप ही है और बाहर के अर्धदेह में तो दुःख ही है, सुख जैसा कुछ है नहीं"तो फिर नारकी के जीवों को 'सुखी' मानने की आपत्ति होगी क्योंकि किसी एक नरक में जब जीव को दुःखानुभव हो रहा है उसी वक्त अन्य नरक के दुख के अभाव का अनुभव भी है अतः वे जैसे दुःखी कहे जाते हैं वैसे सुखी भी क्यों न कहे जाय ? उपरांत, दुःख क्रमश: अनेक इन्द्रियों से होता है, किन्तु कभी एक इन्द्रिय से दुःख होने पर यदि अन्य इन्द्रियों से दुःखोत्पाद नहीं होगा तो दुःखाभाव अर्थात् सुखी होने की आपत्ति होगी ।
यह भी सोचिये कि जो तनिक भी दुःखी नहीं है उसे भी उत्कृष्ट विषयोपभोग से सुख होने का प्रसिद्ध ही है, अब वहां दुःखाभाव ( यानी दुःखध्वंस ) न होने पर यह सुख कैसे होगा ? तथा जहाँ दुःखसंवेदन के बाद विषयोपभोग से सुख होता है, जैसे कि 'भूख के दुःख को कुछ देर तक सहन करने के बाद भोजन प्राप्ति होने पर तृप्ति होने से दुःख संवेदन टल जाने पर सुख होता है, वहाँ यदि सिर्फ दुःखानुभव को ही मान्य किया जाय तो वहाँ विशिष्ट अन्न-पान से जो विशिष्ट - सुखानुभव होता है वह नहीं होगा । विशिष्ट सुखास्वाद के लिये लोक में विशिष्ट अन्नादि का उपभोग देखते भी हैं। सिर्फ भूख के दुःख को टालने का ही प्रयोजन होता तब सामान्य कोटि के अन्नादि से भी
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