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________________ प्रथमखण्ड-का० १-नित्यसुखसिद्धिवादे पूर्व० ६०१ तथाहि-आत्मनो रूपादिविषयज्ञानोत्पत्तौ विषयान्तरे ज्ञानानुपपत्तिासङ्गः, एवमिन्द्रियस्याप्येकस्मिन् विषये ज्ञानजनकत्वेन प्रवृत्तस्य विषयान्तरेजानाऽजनकत्वं व्यासङ्गः । न चैवमात्मनोरूपादिविषयज्ञानोत्पत्ती नित्यसुखे ज्ञानानुत्पत्तिः, तज्ज्ञानस्यापि नित्यत्वात् । शरीरादेस्तु सुखप्रतिबन्धकत्वाभ्युपगमे तदपहन्तुहिंसाफलं न स्यात् । तथाहि-प्रतिबन्धविधातकृदुपकारक एवेति दृष्टान्तेन नित्यसुखसंवदेनप्रतिबन्धकस्य शरीरादेहंन्तुहिसाफलस्याभावः। ___B अथाऽनित्यं तत्संवेदनं तदा तदवस्थायां तस्योत्पत्तिकारणं वाच्यम् । अथ योगजधर्मापेक्षः पुरुषान्तःकरणसंयोगोऽसमवायिकारणम् । न, योगजधर्मस्याप्यनित्यतया विनाशेऽपेक्षाकारणाभावात् । अथाद्यं योगजधर्मादुपजातं विज्ञानमपेक्ष्योत्तरं विज्ञानं तस्माच्चोत्तरमिति सन्तानत्वम् । तन्न, प्रमाणाभावात् । तथा च शरीरसम्बन्धानपेक्षं विज्ञानमेवात्मान्तःकरणसंयोगस्यापेक्षाकारणमिति न दृष्टम् , न च दृष्टविपरीतं शक्यमनुज्ञातुम् । प्राकस्मिकं तु कार्य न भवत्येव । अथ मतम्-शरीरादिरहितस्यापि तस्यामवस्थायां योगजधर्मानुग्रहात सुखसंवेदनमुत्पद्यते। तथाहि-मुमुक्षप्रवृत्तिरिष्टाधिगमार्था, प्रेक्षापूर्वकारिप्रवृत्तित्वात , कृषिबलादिप्रेक्षापूर्वकारिप्रवृत्तिवन, एवं तेषां शास्त्रीय उपदेश इष्टाधिग [नित्यसुखसंवदेन में प्रतिबन्ध की अनुपपत्ति ] यदि ऐसा कहा जाय-"नित्य सुख का संवेदन संसारावस्था में धर्माधर्मफलभूत सुख-दुःख से अथवा तो शरीर से ही प्रति रुद्ध हो जाता है इसलिए नित्य सुख का अनुभव उस वक्त नहीं होता। इस स्थिति में न तो संसारदशा-मुक्तदशा के तुल्यता की आपत्ति है, न तो एक साथ दो सुख ( नित्य और धर्म जन्य) के उपलम्भ होने की आपत्ति है-" तो यह बात अयुक्त है क्योंकि शरीरादि तो भोग के लिये ही उत्पन्न हुआ है ( अर्थात् सुखादिसाक्षात्कार का हेतु है ) अत: उनको नित्यसुखानुभव के प्रतिरोध का कारण नहीं कहा जा सकता, जो जिसके लिये (उत्पन्न ) है वह उसका प्रतिरोधक बने ऐसा देखा नहीं है । तथा वैषयिक सुख का अनुभव भी नित्यसुख के अनुभव का विरोधी बने यह संभव नहीं । देखिये-प्रतिरोध का अर्थ है या तो वस्तु को उत्पत्ति को रोक देना, या उसका विनाश कर देना, यहां मुक्ति का सुख भी नित्य माना है, और उसका संवेदन भी नित्य माना है अत: दोनों में से किसी का भी प्रतिरोध शक्य नहीं है। ___ यदि ऐसा कहें संसारावस्था में बाह्य विषय के व्यापंग से, विद्यमान भी सुखानुभव का संवेदन नहीं होता है जब कि मुक्तदशा में व्यापंग के न होने से नित्यसुखानुभव का सवेदन होता है यह संसारदशा और मूक्तदशा में फर्क है। तो यह ठीक नहीं, क्योंकि नित्यसूख का अनुभव भी नित्य होने से व्यापंग की बात ही अघटित है । देखिये- जब जीवों को एक रूपादिविषय का ज्ञान उत्पन्न होता है तब अन्य रसादिविषय का ज्ञान उत्पन्न नहीं होता- इसी का नाम व्यापंग है। अथवा, एक घटरूपादि विषय के ग्रहण में प्रवृत्त नेत्रेन्द्रिय का अन्य पटरूपादि विषय के ग्रहण में आभिमुख्य न होना इसीको व्यापंग कहते है। किन्तु यहाँ तो आत्मा के नित्यसुख का अनुभवज्ञान भी नित्य ही है, उसको उत्पन्न नहीं होना है, फिर रूपादिविषयक ज्ञान की उत्पत्ति के काल में नित्यसुख विषयक ज्ञान की उत्पत्ति न होने की बात ही संगत नहीं है । तथा शरीरादि को यदि सुख का प्रतिबन्धक मानेगे तो फिर सुख या सुखानुभव में विघ्न भूत शरीर का बात करने वाले को हिंसा का पाप नहीं लगेगा अर्थात् उसका फलभोग भी नहीं करना पड़ेगा। तात्पर्य यह है कि विघ्न का नाश करने वाला तो उपकारक ही कहा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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