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प्रथमखण्ड-का० १-मुक्तिस्वरूपभीमांसा
संसर्गादप्रतिपत्तिरात्मनोऽव्यतिरिक्तस्यापि, यथा रज्ज्वादेव्यस्य तत्त्वाऽग्रहणाऽन्यथाग्रहणाभ्यां स्वरूपं न प्रकाशते यदा त्वविद्यानिवृत्तिस्तदा तस्य स्वरूपेण प्रकाशनम् , एवं ब्रह्मणोऽपि तत्त्वाऽग्रहाऽन्यथाग्रहाभ्यां भेदप्रपञ्चसंसर्गादानन्दादिस्वरूपं न प्रकाशते । मुमुक्षुयत्नेन तु यदाऽनाद्यविद्याव्यावृत्तिस्तदा स्वरूपप्रतिपत्तिः, सैव मोक्षः । अत एवोक्तम् --
"प्रानन्दं ब्रह्मणो रूपं तच्च मोक्षऽभिव्यज्यते" [ ] इति, 'ब्रह्मणः' इति च सुखस्य षष्ठया व्यतिरेकाभिधानेऽपि न भेदस्तन्महत्त्ववत् , संसारावस्थायां त्वप्रतिभासात् तया तस्य व्यतिरेकाभिधानम् । यथाऽऽत्मनो महत्वं निजो गुणो न च संसारावस्थायामात्म ग्रहणेऽपि प्रतिभाति तद्वन्नित्य सुखमविद्यासंमर्गात् मुक्तेः पूर्वमात्माऽव्यतिरिक्त तद्धर्मो वा न प्रतिभाति । महत्त्ववत् सर्वेश्वरत्वं सदा प्रबुद्धत्वं सत्यसंकल्पादित्वं च ब्रह्मस्वभावमपि न प्रकाशते अविद्यासंसर्गात् । अनाधविद्योच्छेदे तु स्वरूपावस्थे ब्रह्मणि तेषां प्रतिभासस्तहत् परमानन्दस्वभावत्वस्यापीति ।
__ असदेतद्-अप्रमाणकत्वात् । तथाहि-न तावदेवंविधोऽभ्युपगमः प्रेक्षावताऽप्रमाणकोऽङ्गीकत युक्तः, अतिप्रसंगात् । प्रमाणवत्त्वे च प्रत्यक्षानुमानागमेभ्योऽन्यतमद् वक्तव्यम्। तत्र न तावत् प्रत्य. क्षमेतदर्थव्यवस्थापकम् . अस्मदादोन्द्रियजन्यप्रत्यक्षस्यात्र वस्तुनि व्यापारानुपलम्भाव। 'योगिप्रत्यक्ष त्वेवं प्रवर्तने उतान्यथा' इत्यद्यापि विवादगोचरम् ।
न्यस्वभाव जैसे नित्य होता है वैसे परमानन्दस्वभाव भी नित्य ही होता है । तथा, आत्मा से चैतन्यस्वभाव अथवा सुखस्वभाव भिन्न नहीं है, उपनिषद् में उसे अभिन्न हो दिखाया गया है, जैसे कि बृहदारण्यक में कहा है कि 'ब्रह्म विज्ञान (मय) और आनन्द (मय) है'।
___ यदि कहें कि-आनन्दस्वभाव नित्य है तो उसका अनुभव क्यों नहीं होता ?-तो उत्तर यह है कि आत्मा परमानन्दस्वभाव होने पर भी सांसारिक अवस्था में अनादिकालीन अविद्या के कुसंग के कारण आत्मा से अभिन्न होते हुए भी सुखस्वभाव का अनुभव संसारदशा में नहीं होता है। उदा०-कुछ तिमिर के संसर्ग से रज्जुद्रव्य के रज्जुत्व का ग्रहण नहीं होता है और सर्प के साथ सादृश्य के कारण उस से विपरीत सर्पत्व का ग्रहण होता है इसलिये रज्जु का स्वरूप विद्यमान होते हुए भी उसका प्रकाश नहीं होता है । जब अविद्या-तिमिर का विलय हो जाता है तब रज्जू के अपने यथार्थस्वभाव का प्रकाशन होता है । उसी तरह ब्रह्म का भी अपने स्वरूप से बोध न हो कर विपरीत स्वरूप से बोध जब होता है तब विविध वस्तुप्रपंच के संसर्ग से आनन्दमय स्वरूप प्रकाशित नहीं होता किंतु जब
मुक्षु उद्यम करता है तब अविद्या का विलय होने पर आनन्दमय स्वभाव की अनुभूति होती है-यही वास्तव मोक्ष है । इसी लिये कहा गया है-"आनन्द ब्रह्म का रूप है और उसकी अभिव्यक्ति मोक्ष में होती है।" यहाँ 'ब्रह्म का आनन्द' इस प्रकार षष्ठी विभक्ति का प्रयोग कर के ब्रह्म और आनन्द का पृथक पृथक विधान होने पर भी वास्तव में उन दोनों में कोई भेद नहीं है, जैसे महत्व (महतपरिमाण) और आत्मा पृथक नहीं होते। भेद न होने पर भी षष्ठो विभक्ति से आनन्द का पृथक् विधान करने का प्रयोजन यह है कि संसारावस्था में उसका प्रतिभास नहीं होता है।
_उदाहरणरूप में देखिये कि महत्त्व आत्मा का अपना गुण है, संसारावस्था में आत्मा का अनुभव होने पर भी तद्गत महत्व का भान नहीं होता है, उसी तरह आत्मा से अभिन्न अथवा आत्मा के धर्मभूत नित्य सुख का भो अविद्या के प्रभाव से मोक्ष के पूर्व अनुभव नहीं होता है । महत्त्व का जैसे
मूमुक्त
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