SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 630
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथमखण्ड-का० १-आत्मविभुत्वे उत्तरपक्षः ५९३ अथ कारणगुणप्रकमेण तत्र दर्शनादयो गुणा वर्ण्यन्ते, तेऽपि प्रागसन्त एव जायन्त इति, एवमपि न किंचित् परिहतम् । एतेन "अवयवेषु क्रिया, क्रियातो विभागः, ततः संयोगविनाशः, ततोऽपि द्रव्यविनाश." [ ] इति परस्याकृतं पूर्वभवान्ते तथा तद्विनाशे आदिजन्मनि स्मरणाद्यभावप्रसंगानिरस्तम् । न चायमेकान्तः-कटकस्य केयूरभावे कुतश्चिद् भागेषु क्रिया, विभागः, संयोगविनाशः, द्रव्यनाशः, पुनस्तदवयवाः केवला:, तदनन्तरं कर्म-संयोगक्रमेण केयूरभावः प्रमाणगोचरचारी। केवलं सुवर्णकारव्यापारात् कटकस्य केयूरीभावं पश्यामः, अन्यथाकल्पने प्रत्यक्षविरोधः । नहि पूर्व विभागः ततः संयोगविनाश इति, तद्भदानुपलक्षणाच्चैतन्य-बुद्धिवत् । न चैकान्तेन तस्याऽक्षणिकत्वे सुखसाधनदर्शनादयः सम्भवन्तीत्यसकृदावेदितमावेदयिष्यते चेत्यास्तां तावत् । ततो नानकान्तिको हेतुः, विपक्षेऽसम्भवात् । अत एव न विरुद्धोऽपि इति भवत्यत सर्वदोषरहितात् केशनखादिरहितशरीरमात्रव्यापकस्य विवादाध्यासितस्यात्मनः सिद्धिरिति साधूक्तम्-'ठाणमणोवमसुहमुवगयाणं' इति । सम्भव हो सकेगा। फिर धर्मकीत्ति का जो यह कथन है कि अनेक परमाणु उपादानों से विज्ञान यदि अनेक उत्पन्न होने का मानंगे तो अन्य सन्तान के साथ जैसे एक परामर्श नहीं होता वैसे उन विज्ञानों में भी एक परामर्श नहीं हो सकेगा-यह कथन दुर्भाषित हो जायेगा, सुभाषित नहीं। [आत्मा में नश्वरता की आपत्ति नहीं है ] यह जो कहा जाता है कि-शरीर सावयव होता है, आत्मा का अनुप्रवेश यदि प्रत्येक देहावयव में मानेंगे तो आत्मा को भी देहवत् सावयव मानना पड़ेगा, आत्मा को सावयव मानने पर उसे समान जातीय अवयवों से जन्य भी मानना होगा जैसे कि वस्त्र । अत एव आत्मा को भी वस्त्र की तरह विनाशशील मानना होगा ।-तो यह ठीक नहीं है। कारण, घटादि में ही आपका नियम तूट जाता है । घटादि सावयव तो होता है किन्तु तन्तुरूप अवयवों के संयोग से उत्पन्न वस्त्र की तरह वह समानजातीय अवयवों से आरब्ध नहीं होता, अर्थात् पूर्व में प्रसिद्ध समानजातीय कपालों के संयोग से घट उत्पन्न नहीं होता किन्तु मिट्टीपिंड में से अपने अवयवों से अभिन्नरूप में पहले ही घट की उत्पत्ति होती है इसका हम आगे निरूपण करेंगे । और यदि आप समानजातोय अवयवों से जन्यत्व हेतु से देव. दतात्मा के कथंचिद् विनाश का प्रतिपादन करना चाहते हैं तो हमारे प्रति यह सिद्धसाधन होगा। कारण देवदत्तात्मा से अभिन्न संसारी अवस्था के विनाश से तद्रूप से देवदत्तात्मा का नाश भी हो ही जाता है [ और मुक्तावस्था से उत्पत्ति भी होती है ] । यदि आप सर्वात्मना सर्वरूप से आत्मा के विनाश की बात करेगे तो ऐसा नाश दृष्टान्तभूत घटादि में ही असिद्ध होने से दृष्टान्त साध्यशून्य फलित होगा। एकान्त नाश जैसे अघटित है वैसे एकान्त से उत्पत्ति भी अघटित है। कारण, उसी दिन पैदा हुए बालात्मा को पूर्वकाल में यदि एकान्त से असत् होता हुआ अपने अवयवों से उत्पन्न होने वाला मानेंगे तो उस दिन उसको स्तन्यपान में प्रवृत्ति नहीं होगी, क्योंकि उसके पूर्व-पूर्व कारणभूत अभिलाष, प्रत्यभिज्ञा, स्मरण, दर्शनादि का सद्भाव हो नहीं है। यदि कहें कि-पूर्वकाल में सत्तावाले उसके जनक अवयवों को विषय का दर्शन-स्मरणादि सब हो गया है अतः स्तन्यपान की प्रवृत्ति घटित होगी। -तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अन्य शरोरों में पूर्वप्रवृत्तविषयदर्शनादि से सीर्फ उन शरीरों में ही प्रवत्ति होती है न कि अ.य किसी में, तो उसी तरह पूर्वतन सत्तावाले अवयवों के विषयदर्शनादि से नवजात बाल की जन्म वेला में उन अवयवों को ही प्रवृत्ति हो सकती है, नवजात बालक आत्मा की नहीं, क्योंकि उसको पूर्व मे स्मरणादि कारण का अभाव है । यदि ऐसा कहा जाय कि-कारणभूत अव For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy