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सम्मतिप्रकरण-काण्ड १
कि च, अर्थक्रियाज्ञानस्यापि प्रामाण्यनिश्चायकत्वेनाऽभ्युपगम्यमानस्य कुतः प्रामाण्यनिश्चयः ? 'तदन्यार्थक्रियाज्ञानात्' इति चेत् ? अनवस्था। 'पूर्वप्रमाणात्' इति चेत् ? अन्योन्याश्रयदोषः प्राक् प्रदर्शितोऽत्रापि । अथार्थक्रियाज्ञानस्य स्वत एव प्रामाण्यनिश्चयः, प्रथमस्य तथाभावे प्रद्वेषः किनिबन्धन: ? । तदुक्तम्यथैव प्रथमं ज्ञानं तत्संवादमपेक्षते ।
संवादेनापि संवादः पुनम ग्यस्तथैव हि ॥ [ कस्यचित्तु यदीष्येत स्वत एव प्रमाणता ।
प्रथमस्य तथाभावे प्रद्वेषः केन हेतुना ॥ [ श्लो० वा० सू० २ श्लो० ७६ ] संवादस्याथ पूर्वेण संवादित्वात प्रमाणता। अन्योन्याश्रयभावेन न प्रामाण्यं प्रकल्पते ॥ [
] इति ।
होती है कि वह भिन्नजातीय संवादी उत्तरज्ञान क्या B2a अर्थक्रिया का ज्ञान है अथवा B2b उससे भिन्न कोई ज्ञान है ? अर्थक्रियाज्ञान से B2b भिन्न कोई ज्ञान पूर्वज्ञान के प्रामाण्य का निश्चायक हैऐसा नहीं कह सकते क्योंकि तब तो घटज्ञान भी पटज्ञान के प्रामाण्य का निश्चायक हो जाना चाहिये।
B2a यदि अर्थक्रिया के ज्ञान को पूर्वज्ञान का संवादी यानी प्रामाण्य का निश्चायक माना जाय तो यह मान्यता भी यक्त नहीं है क्योंकि अर्थक्रिया के ज्ञान में ही प्रामाण्य का निश्चय जब नहीं है तो प्रवत्ति आदि का संभव कैसे हो सकता है, और प्रवत्ति के असंभव से संवादकज्ञान भी नहीं हो सकेगा क्योंकि चक्रकदोष की आपत्ति है । इसलिये अर्थक्रियाज्ञान पूर्वज्ञान के संवादक होने का संभव नहीं है । अतः यह पक्ष भी युक्त नहीं है। यदि कहा जाय कि-"अर्थक्रियाज्ञान पूर्वज्ञान का संवादक न होता हुआ प्रवर्तक नहीं है यह कहना उचित नहीं क्योंकि प्रवृत्ति संशय-निश्चय साधारण ज्ञान से होती है, अत: अर्थक्रियाज्ञान में प्रामाण्य का निश्चय न हो तब भी संदेह से प्रवृत्ति हो सकती है, और इस कारण अर्थक्रियाज्ञान के प्रामाण्य का संदेह भी प्रवृत्ति द्वारा पूर्वज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय करा सकता है"-तो यह उचित नहीं, क्योंकि तब तो प्रामाण्य का निश्चय व्यर्थ हो जाता है । तात्पर्य, प्रामाण्य का निश्चय होना ही चाहिये यह कोई आवश्यक नहीं रहा क्योंकि उसके संदेह से भी प्रवृत्ति मान ली गयी है । इसका तथ्य यह है कि-जब कोई अर्थक्रिया का अभिलाषी प्रामाण्य निश्चित न होने पर भी प्रवृत्ति कर देता है तो भी 'मुझे विसंवाद न हो' अर्थात् 'मेरी ज्ञानानुसारिणी प्रवृत्ति निष्फल न हो' इसके लिये उस ज्ञान के प्रामाण्यनिश्चय की अपेक्षा करता है । परन्तु आपके मतानुसार प्रवृत्ति प्रामाण्य के निश्चय विना भी हो गयी, इसलिये अब प्रामाण्य के निश्चय का यत्न व्यर्थ हो जाता है।
[ अर्थक्रियाज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय कैसे होगा ? ] इसके अतिरिक्त आप प्रामाण्य निश्चय में अर्थक्रियाज्ञान को कारण कहते हैं तो यह बताइये कि उस ज्ञान में प्रामाण्य का निश्चय किससे होता है ? अगर कहें-'दूसरे अर्थक्रिया के ज्ञान से प्रामाण्य निश्चित हो सकता है'-तो इसमें अनवस्था होगी । अगर कहें-अर्थत्रिया के ज्ञान में प्रामाण्य का निश्चय पूर्वकालवर्तीज्ञान से होगा, तो यहाँ भी पूर्व प्रदर्शित [पृ०२४ पं०२३] अन्योन्याश्रय दोष लगेगा। इस
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