SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 615
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५७८ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ अथ लोष्ट क्व ततो मूर्तत्वप्रसंगस्तस्य दोषः । ननु केयं मूत्तिः ? 'असर्वगतद्रव्यपरिणाम सा' इति चेद ? नाऽयं दोषः, सर्वगतात्मवादिनोऽभीष्टत्वात् । 'रूप-रस-गन्ध-स्पर्शवत्वं सेति चेत ? न तादृशी मूत्तिमात्मनाः सक्रियत्वं साधयति, व्याप्त्यभावात , रूपादिमन्मूर्त्यभावे सक्रियत्वात् । 'यो यः सक्रियः स रूपादिश्यमूत्तिमान् यथा शरः, तथा चात्मा, तस्माद् रूपादिमन्मूत्तिमान्' इति कथं न व्याप्तिसंभव: ?-प्रसर देतत् , मनसाऽपि व्यभिचारात । न च तस्यापि पक्षीकरणम् 'रूपादिविशेषगुणानधिकरणं सद् मनोऽथ प्रकाशयति, शरीराधनान्तरत्वे सति सर्वत्र ज्ञान कारणत्वात , आत्मवत' इत्यनुमानवि रोधप्रसंगात्। न च सक्रिय रूपादिमन्मूर्त्यभावेन विरुद्धं यतस्ततस्तनिवर्तमानमात्मनि तथाविधां मूत्ति साधयेत् । न च तथाविधमूतिरहितेम्बरादौ तददर्शनात सिद्धो विरोधः, एकशाखाप्रभवत्वस्याप्यन्यत्र पक्षेऽदर्शनाद विरोधसिद्धिप्रसक्तेः । 'पक्ष एव व्यभिचारदर्शनात सा तत्र न' इति चेत ? न, सक्रियत्वस्यापि ताथा व्यभिचारः समानः, पक्षीकृत एवात्मनि रूपादिमन्मूत्तिरहिते तदर्शनात् । 'प्रनेनैव यदि ऐसा कहें कि-आत्मा के गुण जैसे एक नगर में उपलब्ध होते हैं वैसे ही अन्य नगर में भी उपलब्ध होते हैं, तथा इस जन्म की तरह जन्मान्तर में भी उपलब्ध होते हैं तो फिर आत्मा के गुणों की सर्वत्र उपलब्धि क्यों न मानी जाय ?-तो यह भी ठीक नहीं है। वायु का स्पर्शविशेष गुण एक बार किसी एक स्थल में उपलब्ध होता है, दूसरी बार दूसरे स्थल में भी उपलब्ध होता है-इतने मात्र से यदि आप व्यापकता मानेंगे तो वायु में भी व्यापकता की सिद्धि हो जायेगी। यदि आप उसमें व्यापकता नहीं मानेंगे तो आपका हेतु वहां उपरोक्त रीति से रहता है अत: साध्यद्रोही बन जायेगा। यदि ऐसा काहें कि-वायु तो क्रमश: एक स्थान से दूसरे स्थान में गति करता है इसलिये उसका स्पर्श विशेष गुण अन्या अन्य स्थान में उपलब्ध होता है, उसके व्यापक होने से नहीं तो इसी तरह आत्मा भी देह के साथ अन्य अन्य स्थान में जाता है इसलिये ही उसके गुण अन्यत्र उपलब्ध होते हैं, उसके व्यापक होने से नहीं-यह बात हमारे मत में भी समान दिखाई देती है। यदि कहें कि-वायू की तरह मानेंगे तो आत्मा में सक्रियत्व मानने की आपत्ति होगी।-तो यह हमारे लिये तो इष्टापत्ति ही है । जैनमत में आत्मा में सक्रियता मान्य है। [आत्मा में मृत्तत्व की आपनि का निरसन ] यदि यह कहें कि--आत्मा को सक्रिय मानेगे तो पत्थर की तरह उसमें मूर्तता माननी होगी यही दोष है। तो यहाँ प्रश्न है कि-मूत्ति यानी क्या ? अव्यापकद्रव्यपरिमाण को मूत्ति कहा जाय तो कोई दोष नहीं है बल्कि इष्ट है क्योंकि हम आत्मा को अव्यापक परिमाणवाला ही मानते हैं। रूप-रस-गध-स्पर्शवत्ता को मूत्ति कहा जाय तो सक्रियता से ऐसी मूर्तता की आत्मा में सिद्धि अशक्य है क्योंकि सक्रियता के साथ रूपादिमत्ता का कोई नियम नहीं है, रूपादिमत्तारूप मूर्तता के अभाव में भी सक्रियता हो सकती है। अगर कहें कि-जो जो सक्रिय होता है वह रूपादिमूत्तिमान् होता है, उदा० बाण, आत्मा भी सक्रिय है अतः रूपादिमूत्तिमान होना चाहिये-इस प्रकार नियम का संभव क्यों नहीं ?-तो यह कथन गलत है क्योंकि इस नियम का मन में ही भंग हो जाता है। यदि मन का भी आप पक्ष में अन्तर्भाव कर लेगे तो उसमें निम्नोक्त अनुमान का विरोध होगा रूपादिगुण के अभाववाला ही मन अर्थ का प्रकाशन करता है, क्योंकि वह शरीरादि से भिन्न होता हुआ सर्वत्र ज्ञान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy