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सम्माप्ति प्रकरण-नकाण्ड
कावयवक्रिया संयोगादयः । अपि च, तददृष्टस्य कथं तद्धेतुत्वम् ? 'तस्य भावे 'भाषादभावेऽभावाद्' इति चेत् ? किं पुनरयस्कान्तस्पर्शाद्यभाव एव तत्क्रिया हष्टा येनंयां तत्र कारणस्वाश्वलुप्तिः ? ! ततो न दृष्टानुसारेण तत्रस्थस्यैवाऽदृष्टस्य तं प्रति सत्क्रिया हेतुत्वम् । प्रयत्नवैचित्र्याभ्युपगमे च हेतोरनैकान्तिकत्वम् ।
श्रथ सर्वत्रादृष्टस्य वृत्तिस्तहि सर्वद्रव्य क्रिया हेतुत्वम् । यददृष्टं यद् द्रव्यमुत्पादयति तत् तत्रैव क्रियामुपरचयतीत्यभ्युगपमे शरीरारम्भकेषु परमाणुषु ततः क्रिया न स्यादित्युक्तम् । न च गुणत्वमप्यदृष्टस्य सिद्धमिति 'क्रियाहेतुगुणत्वात्' इत्यसिद्धो हेतुः । अथ 'अदृष्टं गुणः प्रतिषिध्यमानद्रव्य-कर्म-भावे सत्ति सत्तासम्बन्धित्वात् रूपादिवत्' । न च प्रतिषिध्यमानद्रव्यत्वमसिद्धम् । तथाहि'न द्रव्यमदृष्टम्, एकद्रव्यत्वात् रूपादिवत् इति । असदेतत् एकद्रव्यत्वस्यासिद्धताप्रतिपादनात् सत्तासम्बन्धित्वस्य चेति ।
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दोनों में क्रियाहेतुत्व मानना होगा, कोई विशेष विनिगमक तो है नहीं । जब स्पर्शगुण में भी इस प्रकार क्रिया की हेतुता सिद्ध हुयी तो 'एकद्रव्यत्वे सति क्रियाहेतुगुणत्वात्' यह हेतु उसमें रह गया किन्तु वहाँ साध्य नहीं है क्योंकि स्पर्शगुण तो अपने आश्रय अयस्कान्त से असंयुक्त लोहद्रव्य में क्रिया को उत्पन्न करता है । अतः हेतु साध्यद्रोही बन गया ।
[ अयस्कान्त से लोहाकर्षण में अदृष्टहेतुता का निरसन ]
अन्य किसी ने जो यह कहा है-पुरुष के देह में से शल्य के निकल जाने पर जो सुखानुभव होता है वह शल्यनिःसरण से नहीं किन्तु अदृष्ट से ही उत्पन्न होता है, उसी तरह अयस्कान्त से खिचे जाने वाले लोहे को जब देखते है तब भी लोहद्रव्य की क्रिया में अदृष्ट ही हेतु होता है, अयस्कान्त नहीं । - यह कथन भी परास्त हो जाता है, क्योंकि शल्यनिःसरण से होने वाले अदृष्टजन्य सुख के हृष्टान्त को सर्वत्र लागू किया जा सकता है, फलत: हर कोई पदार्थ के कार्यकारणभाव के निर्धारण करते समय वहां अदृष्ट को ही कारण मान लिया जायेगा तो अदृष्टभिन्न पदार्थों में कारणता का मंग हो जायेगा । शरीर जिस आत्मा को सुख-दुख उत्पन्न करेगा, वहाँ भी शरीर के बदले अदृष्ट को ही हेतु मान लेने से देह की कल्पना करने की जरूर न रहने से देहारम्भक अवयवों में क्रिया और संयोगादि की उत्पत्ति की कथा ही समाप्त हो जायेगी ।
तदुपरांत, यह भी एक प्रश्न है कि 'देवदत्तात्मा का अदृष्ट देवदत्त के सुखादि का हेतु है' ऐसा निर्णय कैसे होगा ? देवदत्तअदृष्ट के रहने पर देवदत्त को सुखादि होता है, न रहने पर नहीं होता है-ऐसे अन्वय व्यतिरेक से वैसा निर्णय यदि किया जाय तो क्या वहाँ ऐसा कभी देखा है कि अयस्कान्त के स्पर्शगुण के अभाव भी लोह का आकर्षण होता हो ? यदि नहीं, तो फिर उसके स्पर्शादि को कारण क्यों न माने जाय ?
निष्कर्ष यह है कि दूसरे विकल्प में मोतीयों से संयुक्त आत्मप्रदेशों में ही रहा हुआ अदृष्ट, वायु दृष्टान्त के अनुसार देवदत्त के प्रति मोतियों की गमनक्रिया का हेतु नहीं माना जा सकता । तथा धनुर्धर के दृष्टान्त से आपने जो कहा है कि प्रयत्न अपने स्थान में रहकर ही अपने आश्रय शरीरादि से असंयुक्त ही बाण में क्रिया उत्पन्न करता रहता है - तो ऐसा कहने पर यहाँ क्रियाहेतुगुणत्व हेतु रह गया और साध्य नहीं रहा, अत: प्रयत्नवैचित्र्य मानने पर हेतु साध्यद्रोही हुआ ।
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