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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
"क्रियाहेतुगुणत्वात' इत्यत्रापि यदि देवदत्तसंयुक्तात्मप्रदेशे वर्तमानमदृष्टं द्वीपान्तरत्तिषु मुक्ताफलादिषु देवदत्तं प्रत्युपसपर्णवत्सु क्रियाहेतुः-तदयुक्तम् , अतिदूरत्वेन द्वीपान्तरत्तिभिस्तैस्तस्याऽनभिसबन्धित्वेन तत्र क्रियाहेतुत्वाऽयोगात, तथापि तद्धेतुत्वे सर्वत्र स्यात् , अविशेषात् । अथानभिसम्बन्ध. विशेषेऽपि यदेव योग्यं तदेव तेनाऽऽकृष्यते न सर्वमिति नातिप्रसंगः । न, चक्षुषोऽप्राप्यकारित्वेऽपि यदेव योग्यं तदेव तद्ग्राह्यमिति । यदुक्तं परेण-"अप्राप्यकारित्वे चक्षुषो दूरध्यवस्थितस्यापि ग्रहणप्रसंग:" [ ] इत्ययुक्तं स्यात् । अथ स्वाश्रयसयोगसम्बन्धसंभवात् 'अनभिसम्बन्धात्' इत्यसिद्धम् । तथाहियमात्मानमाश्रितमदृष्टं तेन संयुक्ता नि देशान्तरत्तिमुक्ताफलादीनि दवदत्तं प्रत्याकृष्यमाणानि । न, सर्वस्याऽऽकर्षणप्रसंगात् तेनाऽभिसम्बन्धाऽविशेषात् । न च यददृष्टेन यज्जन्यते तत् तेनाऽऽकृष्यते इति कल्पना युक्तिमती, देवदत्तशरोरारम्भकपरमाणूनां तदष्टाऽजन्यत्वेनाऽनाकर्षणप्रसंगात , तथाप्या. कर्षणेऽतिप्रसंगः प्रतिपादित एव । यथा च कारणत्वाऽविशेषे घटदेशादौ सन्निहितमेव दण्डादिकं घटादि. कायं जनयति अदृष्टं त्वन्यथेत्यभ्युपगमस्तथा बाह्य न्द्रियत्वाऽविशेषेऽपि त्वगिन्द्रियं प्राप्तमर्थमवभासयति, लोचनं त्वन्यथेत्यभ्युपगमः किं न युक्तः ? !
[क्रियाहेतुगुणत्वात्-इस हेतु की परीक्षा] "क्रियाहेतुगुणत्वात्' इस हेतु में भी, देवदत्त के आत्मप्रदेशों में विद्यमान अष्ट को, देवदत्त के प्रति खिचे जाने वाले अन्यद्वीप वर्ती मोतीओं की क्रिया का हेतु यदि माना जाय तो यह युक्त नहीं। कारण, वे मोती अन्य द्वीप में अति दूर रहे हुए होने से उनके साथ अदृष्ट का कोई सम्बन्ध ही नहीं बन सकता, अत: उन की क्रिया में वह हेतु भी नहीं हो सकता। फिर भी यदि अप्ट को उन मोतीयों की क्रिया का कारण मानेंगे तो हर कोई चीज की क्रिया में कारण मानना होगा, क्योंकि सम्बन्ध का अभाव तो सर्वत्र समान है। यदि ऐसा कहा जाय कि-सम्बन्ध न होने की बात सर्वत्र समान होने पर भी जो आकर्षणयोग्य होते हैं उनका ही देवदत्त के अहष्ट से आकर्षण होता है, सभी का नहीं होता, ऐसा मानने पर कोई अतिप्रसंग दोष नहीं है । तो यह भी ठीक नहीं है। कारण, चक्षुअप्राप्यकारिता वादी भी कह सकेगा कि चक्षु अप्राप्यकारी होने पर भी व्यवहित पदार्थों के ग्रहण का अतिप्रसंग निरवकाश है क्योंकि सम्बन्ध के विना भी जो योग्य होता है वही उसका ग्राह्य होता है, सभी नहीं। फिर आपके मत में जो यह कहा गया है कि 'चक्षु यदि अप्राप्यकारि होगा तो दूर रहे हुए पदार्थ के ग्रहण का प्रसंग होगा' [ ] यह अयुक्त ठहरेगा।
। यदि ऐसा कहें कि-अन्य द्वीप के मोतीयों के साथ देवदत्त के अदृष्ट का स्वाश्रयसंयोग सम्बन्ध बन सकता है । स्व यानी देवदत्त का अदृष्ट, उसका आश्रय देवदत्तात्मा, वह व्यापक होने से मोतीयों के साथ उसका संयोग सम्बन्ध है । इस लिये आपने कहा था कि संबन्ध नहीं है यह बात असिद्ध है। तात्पर्य यह है कि अदृष्ट जिस आत्मा में आश्रित है उस आत्मा के साथ संयुक्त अन्यदेशवर्ती मोती आदि पदार्थ देवदत्त के प्रति आकृष्ट होते हैं । तो यह बात भी व्यर्थ है क्योंकि इस प्रकार का सम्बन्ध हर एक चीजों के साथ बन सकता है अत: सभी चीजों के आकर्षण की आपत्ति होगी । यदि ऐसी कल्पना करें कि जिस के अष्ट से जो उत्पन्न हुआ हो वही उस व्यक्ति के अष्ट से आकृष्ट होगा अतः
*यह बात भी अभ्युपगमवाद से कही गयी है। अन्यथा, आत्मा का व्यापकत्व ही अब तक सिद्ध नहीं है तो स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध की बात ही कैसे बन सकती है?
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