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प्रथमखण्ड - का० १- ई० शब्दद्रव्यत्वसाधनम्
तथा, सामान्यविशेषवत्त्वे सति बाह्य केन्द्रियप्रत्यक्षत्वेऽपि वायुनैकद्रव्य इति व्यभिचारश्च तस्य तदप्रत्यक्षत्वे न किंचिद् बाह्य न्द्रियप्रत्यक्षं स्थात् । 'दर्शन- स्पर्शन ग्राह्य' घटादिकं तदिति चेत् ? न वायुना कोऽपराधः कृतो येन स्पर्शनेन्द्रियग्राह्यत्वेऽपि प्रत्यक्षो न भवेत् ? 'स्पर्श एव तेन प्रतीयते' इति चेत् ? तहि दर्शन - स्पर्शनाभ्यामपि रूप- स्पर्शावेव प्रतीय ( ये ) ते इति न द्रव्यप्रत्यक्षता नाम । अथ यदेवाहमद्राक्षं तदेव स्पृशामि इति प्रतोतेस्तत्प्रत्यक्षता- 'खरो मृदुरुष्ण: शोतो वायुमें लगति' इति प्रतीतेस्तत्प्रत्यक्षता कल्प्यताम्, अविशेषात् । चक्षुषैकेन चास्मदादिभिः प्रतीयमानाश्चन्द्रार्कादियः सामान्यविशेषत्त्वेऽपि नैकद्रव्या: । अस्मदादि विलक्षणैर्बाह्य न्द्रियान्तरेण तत्प्रतीतौ शब्देऽपि तथा प्रतीतिः किं न स्यात् ? अत्र तथानुपलम्भोऽन्यत्रापि समानः । ' देशान्तरे कालान्तरे सत्वान्तरे च बाह्य केन्द्रियग्राह्यत्वे सति विशेषगुणत्वात्, रूपादिवत्' इति चेत् ? प्रसदेतत् - शब्दस्य गुणत्वेन निषिद्धत्वात् 'विशेषगुणत्वात्' इति हेतुरसिद्धः । चन्द्रादेरस्मदाद्य प्रत्यक्षत्वे प्रतीतिविरोधः इत्यास्तामेतत् ।
जैसे: 'शब्द अनेक द्रव्यवाला है क्योंकि हम लोगों को प्रत्यक्ष होता हुआ स्पर्शवाला है जैसे घटादि ।' शब्द में कैसे स्पर्शवत्ता है यह पहले दिखाया है अतः वह असिद्ध नहीं है । सिर्फ 'स्पर्शवाला है' इतना कहें तो परमाणुओं में साध्यद्रोह हो जाय क्योंकि परमाणु अनेक द्रव्यवाला नहीं है और स्पर्शवाला है, अतः उसको हठाने के लिए 'हम लोगों को प्रत्यक्ष होता हुआ' ऐसा विशेषण कहा है। और यदि हम लोगों को प्रत्यक्ष होता हुआ इतना ही कहें तो रूपादि में साध्यद्रोह है क्योंकि रूपादि अनेकद्रव्यवाले नहीं है किन्तु हमें प्रत्यक्ष होते है, अतः विशेषण पद के साथ 'स्पर्शवाला' यह विशेष्य पद दोनों का प्रयोग किया है ।
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[ वायु का स्पर्शनेन्द्रियप्रत्यक्ष प्रतीतिसिद्ध है ]
तदुपरांत, वायु एकद्रव्यवाला नहीं है. फिर भी उसमें सामान्यविशेष रहता है और वह बाह्य एक स्पर्शनेन्द्रिय से प्रत्यक्ष है इसलिये हेतु साध्यद्रोही बना । यदि आप वायु को स्पर्शनेन्द्रियप्रत्यक्ष न मानेंगे तो बाह्य न्द्रियप्रत्यक्ष कोई होगा ही नहीं । यदि कहें कि दर्शन और स्पर्शन उभय इन्द्रिय से ग्राह्य जो घटादि वही बाह्येन्द्रियप्रत्यक्ष है तो पूछना पड़ेगा कि वायु ने क्या आपका अपराध किया जो स्पर्शनेन्द्रियग्राह्य होने पर भी प्रत्यक्ष न माना जाय ? ! 'उसका स्पर्श ही प्रत्यक्ष से प्रतीत होता है, स्वयं वायु द्रव्य नहीं' ऐसा यदि मानेगे तो दर्शन- स्पर्शनेन्द्रिय से भी द्रव्यों के रूप और स्पर्श ही प्रतीत होता है, स्वयं द्रव्य प्रत्यक्ष नहीं होता ऐसा भी क्यों न माना जाय ? यदि ऐसा कहें'जिसको मैंने देखा था उसी को छू रहा हूँ' ऐसी प्रतीति से द्रव्य को प्रत्यक्ष मानना ही पड़ेगा तो फिर 'प्रखर अथवा कोमल, शोत अथवा उष्ण वायु मुझे स्पर्श कर रहा है' ऐसी प्रतीति से वायु का भी प्रत्यक्ष मानना ही पडेगा, दोनों ओर युक्ति की समानता है ।
[ चन्द्रसूर्यादिस्थल में हेतु साध्यद्रोही ]
तथा, चन्द्र-सूर्यादि को तो हम छू भी नहीं सकते, अतः वे केवल चक्षु इन्द्रिय से ही हम लोगों को प्रत्यक्ष हो सकते हैं, और चन्द्र-सूर्यादि सामान्यविशेषवाला भी है, इस प्रकार हेतु उसमें रह गया है, 'एकद्रव्यवाला' यह साध्य तो वहाँ नहीं रहता अतः हेतु वहाँ साध्यद्रोही ठहरा । यदि हम लोगों से भिन्न देवतादि को चन्द्र-सूर्यादि का चक्षुभिन्न स्पर्शनेन्द्रिय से प्रत्यक्ष होने का माना जाय तो फिर उन
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